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१४६ जैन योग
लेश्या और चैतन्य- केन्द्र
हमारे शरीर में अनेक चैतन्य- केन्द्र हैं। आर्त्त, रौद्रध्यान होता है तब अशुद्ध लेश्या होती है । उस स्थिति में चैतन्य - केन्द्र सुप्त रहते हैं | धर्म और शुक्ल ध्यान होता है तब लेश्या शुद्ध होती है । उस स्थिति में चैतन्य - केन्द्र जागृत हो जाते हैं । चैतन्य- केन्द्र हमारी चेतना और शक्ति की अभिव्यक्ति के स्रोत हैं । उन्हें जागृत करने की दो पद्धतियां हैं
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१. विशुद्ध लेश्या की भावधारा द्वारा चैतन्य - केन्द्र अपने आप जागृत हो जाते हैं ।
२. चैतन्य-केन्द्रों पर अवधान नियोजित करने पर वे भी जागृत हो जाते हैं ।
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महावीर ने इसीलिए अप्रमाद का सूत्र दिया कि अप्रमत्त रहने वाले व्यक्ति की लेश्या शुद्ध होती है तब चैतन्य - केन्द्र सहज ही जागृत हो जाते हैं और ये चैतन्य- केन्द्र अप्रमत्त रहने के आलंबन भी बनते हैं । सुप्त चैतन्यकेन्द्रों पर मन विचरण करता है तब कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की भावधारा उभरती है । चैतन्य- केन्द्रों के जागृत हो जाने पर तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्या की भावधारा बनती है ।
अप्रमत्त अवस्था में अध्यवसाय ( अचेतन मन ) शुद्ध बनता है। उससे लेश्या शुद्ध होती है। उसके शुद्ध होने पर ही मनुष्य का स्वभाव बदल सकता है, आदतों में परिवर्तन आ सकता है, रुचि और आकांक्षा को नया मोड़ दिया जा सकता है । लेश्या की शुद्धि हुए बिना जीवन परिवर्तन की दिशा में एक पैर भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता । व्यक्तित्व के परिष्कार का महत्त्वपूर्ण सूत्र है - लेश्या का विशुद्धीकरण, लेश्या के विशुद्धीकरण का सूत्र है - शुद्ध अध्यवसाय, और शुद्ध अध्यवसाय का आधार है - धर्म और शुक्ल ध्यान । ध्यान और लेश्या में गहरा संबंध है। ध्यान अशुद्ध होता है तो लेश्या अशुद्ध हो जाती है, आभामंडल विकृत बन जाता है। ध्यान शुद्ध होता है तो लेश्या शुद्ध हो जाती है, आभामंडल स्वस्थ और निर्मल बन जाता है ।
वैज्ञानिक निष्कर्ष
अणु-आभा वैज्ञानिक डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने इस विषय का बड़े
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