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१४४जैन योग
होता है । धर्मध्यान के समय तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीनों लेश्याएं होती हैं । शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में शुक्ल और तीसरे चरण में परम शुक्ललेश्या होती है । उसका चौथा चरण लेश्यातीत होता है । भावधारा की विचित्रता के आधार पर आभामंडल के वर्ण भी विचित्र बनते जाते हैं और वर्ण विचित्रता भावधारा की विचित्रता का बोध कराने में सक्षम होती है । हम भावधारा को साक्षात् नहीं देख पाते, नहीं जान पाते । वर्णों की विचित्रता के आधार पर भावधारा का अनुमान कर सकते हैं ।
आभामंडल और वर्ण
आभामंडल में काले वर्ण की प्रधानता हो तो समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है, आकांक्षा प्रबल है, प्रमाद प्रचुर है, कषाय का आवेग प्रबल और प्रवृत्ति अशुभ है, मन, वचन और काया का संयम नहीं है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं है, प्रकृति क्षुद्र है, बिना विचारे काम करता है, क्रूर है और हिंसा में रस लेता है ।
यदि काला वर्ण अधिक अप्रशस्त, अमनोज्ञ होता है तो उक्त भावधारा और प्रवृत्ति के अधिक तीव्र रूप का अनुमान किया जा सकता है ।
आभामंडल में नील वर्ण की प्रधानता हो तो समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति में ईर्ष्या, कदाग्रह, माया, निर्लज्जता, आसक्ति, प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, यशलोलुपता, सुख की गवेषणा, प्रकृति की क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, अतपस्विता, अविद्या, हिंसा में प्रवृत्ति - इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति है ।
यदि नील वर्ण अधिक अप्रशस्त, अमनोज्ञ होता है तो उक्त भावधारा और प्रवृत्ति के अधिक तीव्ररूप का अनुमान किया जा सकता है । आभामंडल में कापोत वर्ण की प्रधानता हो तो समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति में वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, प्रवंचना, अपने दोषों को छिपाने की प्रवृत्ति, मखौल करना, दुष्टवचन बोलना, चोरी करना, मात्सर्य, मिथ्यादृष्टि - इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति है ।
यदि कापोत वर्ण अधिक अप्रशस्त, अमनोज्ञ होता है तो उक्त भावधारा और प्रवृत्ति के अधिक तीव्ररूप का अनुमान किया जा सकता है ।
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