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पद्धति और उपलब्धि - १४१
लेश्या का वर्गीकरण
प्राणिमात्र के अध्यवसाय अशुद्ध और शुद्ध-दोनों प्रकार के होते हैं । जिस अध्यवसाय में राग-द्वेषात्मक संक्लेश होता है वह अशुद्ध होता है और जिसमें राग-द्वेषात्मक संक्लेश नहीं होता वह शुद्ध होता है । इस अध्यवसायभेद के आधार पर लेश्या के दो वर्ग बनते हैं-अधर्म लेश्या और धर्म लेश्या । लेश्या पुद्गल-परमाणुओं से प्रभावित होती है और उन्हें प्रभावित करती है। पुद्गल-परमाणुओं में पांच वर्ण होते हैं । इस आधार पर लेश्या का दूसरा वर्गीकरण होता है । उस वर्गीकरण में लेश्या के छह प्रकार बनते हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कापोतलेश्या में कृष्ण और लाल-दोनों रंग मिश्रित होते हैं । उक्त दोनों वर्गीकरण निमित्त और उपादान के आधार पर किए गए हैं। अशुद्ध लेश्या का उपादान है-कषाय और तीव्रता । और शुद्ध लेश्या का उपादान है-कषाय की मंदता । अशुद्ध लेश्या के निमित्त हैं-कृष्ण, नील और कापोत वर्ण वाले पुद्गल और शुद्ध लेश्या के निमित्त हैं- रक्त, पीत और श्वेत वर्ण वाले पुद्गल ।
- प्रथम तीन लेश्याओं में विचार क्लेशपूर्ण होती है और अंतिम तीन लेश्याओं में विचारधारा क्लेशरहित होती है। उनमें क्लेश और अक्लेश की तरतमता इस प्रकार रहती है१. कृष्णलेश्या - अशुद्धतम
- क्लिष्टतम २. नीललेश्या - अशुद्धतर - क्लिष्टतर ३. कापोतलेश्या - अशुद्ध - क्लिष्ट ४. तेजोलेश्या - शुद्ध - अक्लिष्ट ५. पद्मलेश्या - शुद्धतर - अक्लिष्टतर ६. शुक्ललेश्या - शुद्धतम - अक्लिष्टतम
मनुष्य में जैसी लेश्या होती है वैसा ही उसका आभामंडल होता है । विचारधारा की विशुद्धि से आभामंडल विशुद्ध बनता है और उसकी मलिनता से आभामंडल मलिन बनता है । इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के आभामंडल भी छह प्रकार के बनते जाते हैं | पंचवर्ण वाले पुद्गल-परमाणु मनुष्य की
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