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________________ भावधारा और आभामंडल चैतन्य लेश्या : पुद्गल लेश्या जीव और अजीव के बीच जो भेद-रेखाएं खींची गयी हैं उनमें एक भेदरेखा है लेश्या । लेश्या जीव में ही होती है, अजीव में नहीं होती । इस नियम के आधार पर यह परिभाषा की जा सकती है कि जिसमें लेश्या होती है वह जीव और जिसमें लेश्या नहीं होती वह अजीव । लेश्या चैतन्य और पुद्गल-दोनों के योग से निर्मित होती है । चैतन्य की रश्मि पुद्गल की रश्मि को प्रभावित करती है और पुद्गल की रश्मि चैतन्य की रश्मि को प्रभावित करती है। यह पारस्परिक प्रभाव ही लेश्या का मौलिक आधार है । लेश्या का विचार चैतन्य-परिणाम और पुद्गल-परिणाम-दोनों दृष्टियों से होता है । हमारे विचार पौद्गलिक द्रव्यों से प्रभावित होकर जो आकार लेते हैं वह 'चैतन्य लेश्या' है । हमारे विचारों से प्रभावित होकर पौद्गलिक द्रव्य जो आकार लेते हैं वह 'पुद्गल लेश्या' या 'आभामंडल' है । हमारे विचार बहुत सूक्ष्म होते हैं, इसलिए उनके आधार पर आभामंडल को पहचानना दूसरे व्यक्ति के लिए सहज नहीं होता । आभामंडल विचारों की अपेक्षा स्थूल होता है, इसलिए उसके माध्यम से विचारों को पहचाना जा सकता है । किंतु आभामंडल भी इतना स्थूल नहीं होता कि उसे चर्म-चक्षु से देखा जा सके । वह इन्द्रियगम्य नहीं है । उसे देखने के लिए अतीन्द्रिय प्रतिभा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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