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पद्धति और उपलब्धि - १३७ उसी रूप में उसका संस्कार निर्मित हो जाता है । यह आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है । इसे ‘जप' भी कहा जा सकता है। आत्मा की भावना करने वाला आत्मा में स्थित हो जाता है । 'सोऽहं' के जप का यही मर्म है । 'अर्हम्' की भावना करने वाले में 'अर्हत' होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कोई व्यक्ति भक्ति से भावित होता है, कोई ब्रह्मचर्य से और कोई सत्संग से | अनेक व्यक्ति नाना भावनाओं से भावित होते हैं । जो किसी भी कुशल कर्म से अपने को भावित करता है उसकी भावना उसे लक्ष्य की ओर ले जाती है।
भगवान् महावीर ने भावना को नौका के समान कहा है | नौका यात्री को तीर तक ले जाती है | उसी प्रकार भावना भी साधक को दुःख के पार पहुंचा देती है।
प्रतिपक्ष की भावना से स्वभाव, व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है । मोह कर्म के विपाक का प्रतिफल भावना का निश्चित परिणाम होता है । उपशम की भावना से क्रोध, मृदुता की भावना से अभिमान, ऋजुता की भावना से माया और संतोष की भावना से लोभ को बदला जा सकता है | राग और द्वेष का संस्कार चेतना की मूर्छा से होता है और वह मूर्छा चेतना के प्रति जागरूकता लाकर तोड़ी जा सकती है । प्रतिपक्ष भावना चेतना की जागृति का उपक्रम है, इसलिए उसका निश्चित परिणाम होता है । - साधनाकाल में ध्यान के बाद स्वाध्याय और स्वाध्याय के बाद फिर ध्यान करना चाहिए । स्वाध्याय की सीमा में जप, भावना और अनुप्रेक्षा-इन सबका समावेश होता है | यथासमय और यथाशक्ति इन सबका प्रयोग आवश्यक है।
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