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________________ भावनायोग आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया ___ध्यान का अर्थ है प्रेक्षा-देखना । उसकी समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है | जिस विषय का अनुचिंतन बार-बार किया जाता है या जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित हो जाता है । इसलिए उस चिंतन या अभ्यास को भावना कहा जाता है । जिस व्यक्ति को भावना का अभ्यास हो जाता है उसमें ध्यान की योग्यता आ जाती है । ध्यान की योग्यता के लिए चार भावनाओं का अभ्यास आवश्यक १. ज्ञान भावना-राग, द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थभाव से देखने का अभ्यास । २. दर्शन भावना-राग, द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थभाव से देखने का अभ्यास । ३. चारित्र भावना-राग, द्वेष और मोह से शून्य समत्वपूर्ण आचरण का अभ्यास | ४. वैराग्य भावना-अनासक्ति अनाकांक्षा और अभय का अभ्यास । मनुष्य जिसके लिए भावना करता है, जिस अभ्यास को दोहराता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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