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________________ १३४ जैन योग करने वाला अपने प्रयत्न से उस धारा को नए रूप में पकड़कर उसे प्रलंब बना देता है । संयम हमारे भीतर शक्ति का अनंत कोष है। उस शक्ति का बहुत बड़ा भाग ढंका हुआ है, प्रतिहत है। कुछ भाग सत्ता में है और कुछ भाग उपयोग में आ रहा है । हम अपनी शक्ति के प्रति यदि जागरूक हों तो सत्ता में रही हुई शक्ति और प्रतिहत शंक्ति को उपयोग की भूमिका तक ला सकते हैं । शक्ति का जागरण संयम के द्वारा किया जा सकता है । हमारे मन की अनेक मांगें होती हैं | हम उन मांगों को पूरा करते चले जाते हैं । फलतः हमारी शक्ति स्खलित होती जाती है। उसके जागरण का सूत्र है -- मन की मांग का अस्वीकार | मन की मांग के अस्वीकार का अर्थ है-संकल्प-शक्ति का विकास । यही संयम है। जिसका निश्चय (संकल्प या संयम ) दृढ़ होता है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं होता । । 1 शुभ और अशुभ निमित्त कर्म के उदय में परिवर्तन ला देते हैं । किंतु मन का संकल्प उन सबसे बड़ा निमित्त है। इससे जितना परिवर्तन हो सकता है उतना अन्य निमित्तों से नहीं हो सकता । जो अपने निश्चय में एकनिष्ठ होते हैं वे महान् कार्य को सिद्ध कर लेते हैं । गौतम ने पूछा- 'भंते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है ?' भगवान् ने कहा - 'संयम से जीव आस्रव का निरोध करता है । संयम का फल अनास्रव है ।' जिसमें संयम की शक्ति विकसित हो जाती है उसमें विजातीय द्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता । संयमी मनुष्य बाहरी प्रभावों से प्रभावित नहीं होता । कहा है-सब काम ठीक समय से करो । खाने के समय खाओ, सोने के समय सोओ । सब काम निश्चित समय पर करो । यदि आप नौ बजे ध्यान करते हैं और प्रतिदिन उस समय ध्यान ही करते हैं, मन की किसी अन्य मांग को स्वीकार नहीं करते तो आपकी संयम - शक्ति प्रबल हो जाएगी । संयम एक प्रकार का कुंभक है। कुंभक में जैसे श्वास का निरोध होता है, वैसे ही संयम में इच्छा का निरोध होता है । भगवान् महावीर ने कहा- सर्दीगर्मी, भूख-प्यास, बीमारी, गाली, मारपीट - इस सब घटनाओं को सहन करो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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