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पद्धति और उपलब्धि - १३३ रहे हैं'-इसकी स्मृति रहती है-यह गति की भावक्रिया है । इसका सूत्र है कि साधक चलते समय पांचों इन्द्रियों के विषयों पर मन को केन्द्रित न करे |
आंखों से कुछ दिखाई देता है, शब्द कानों से टकराते हैं, गंध के परमाणु आते हैं, ठंडी या गर्म हवा शरीर को छूती है-इन सबके साथ मन को न जोड़ें। रस की स्मृति न करें।
साधक चलते समय पांचों प्रकार का स्वाध्याय न करे-न पढ़ाए, न प्रश्न पूछे, न पुनरावर्तन करे, न अर्थ का अनुचिंतन करे और न धर्म-चर्चा करे । मन को पूरा खाली रखे | साधक चलने वाला न रहे, किंतु चलता बन जाए, तन्मूर्ति (मूर्तिमान् गति) हो जाए। उसका ध्यान चलने में ही केन्द्रित रहे, चेतना गति का पूरा साथ दे । यह गमनयोग है ।
शरीर और वाणी की प्रत्येक क्रिया भावक्रिया बन जाती है । जब मन की क्रिया उसके साथ होती है, चेतना उसमें व्याप्त होती है ।
भावक्रिया का सूत्र है-चित्त और मन क्रियमाण क्रियामय हो जाए, इन्द्रियां उस क्रिया के प्रति समर्पित हों, हृदय उसकी भावना से भावित हो, मन उसके अतिरिक्त किसी अन्य विषय में न जाए, इस स्थिति में क्रिया भावक्रिया बनती है। एकाग्रता
प्रेक्षा से अप्रमाद (जागरूकभाव) आता है । जैसे-जैसे अप्रमाद बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा की सघनता बढ़ती है । हमारी सफलता एकाग्रता पर निर्भर है । अप्रमाद या जागरूकभाव बहुत महत्त्वपूर्ण है । शुद्ध उपयोग केवल जानना और देखना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किंतु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है जब ये लम्बे समय तक निरंतर चलें । देखने और जानने की क्रिया में बार-बार व्यवधान न आए; चित्त उस क्रिया में प्रगाढ और निष्पकंप हो जाए । अनवस्थित, अव्यक्त और मृदु चित्त ध्यान की अवस्था का निर्माण नहीं कर सकता । पचास मिनट तक एक आलम्बन पर चित्त की प्रगाढ़ स्थिरता का अभ्यास होना चाहिए । यह सफलता का बहुत बड़ा रहस्य है । इस अवधि के बाद ध्यान की धारा रूपान्तरित हो जाती है। लम्बे समय तक ध्यान
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