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१३२ जैन योग
शरीर के प्रकंपनों को देखना, उसके भीतर प्रवेश कर भीतरी प्रकंपनों को देखना, मन को बाहर से भीतर में ले जाने की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया से मूर्च्छा टूटती है और सुप्त चैतन्य जागृत होता है । शरीर का जितना आयतन 1 है उतना ही आत्मा का आयतन है । जितना आत्मा का आयतन है उतना ही चेतना का आयतन है । इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के कण-कण में चैतन्य व्याप्त है । इसीलिए शरीर के प्रत्येक कण में संवेदन होता है । उस संवेदन से मनुष्य अपने स्वरूप को देखता है, अपने अस्तित्व को जानता है और अपने स्वभाव का अनुभव करता है । शरीर में होने वाले संवेदन को देखना चैतन्य को देखना है, उसके माध्यम से आत्मा को देखना है ।
वर्तमान क्षण की प्रेक्षा
अतीत बीत जाता है, भविष्य अनागत होता है, जीवित क्षण वर्तमान होता है । भगवान् महावीर ने कहा- “खणं जाणाहि पंडिए ।' साधक, तुम क्षण को जानो । अतीत के संस्कारों की स्मृति से भविष्य की कल्पनाएं और वासनाएं होती हैं । वर्तमान क्षण का अनुभव करने वाला स्मृति और कल्पना- दोनों से बच जाता है। स्मृति और कल्पना राग-द्वेष- युक्त चित्त का निर्माण करती हैं। जो वर्तमान क्षण का अनुभव करता है, वह सहज ही रागद्वेष से बच जाता है । यह राग-द्वेष - शून्य वर्तमान क्षण ही संवर है । रागद्वेष - शून्य वर्तमान क्षण को जीने वाला अतीत में अर्जित कर्म-संस्कार के बंध का निरोध करता है । इस प्रकार वर्तमान क्षण में जीने वाला अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान का संवरण और भविष्य का प्रत्याख्यान करता है ।
तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना को छोड़ने वाला महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो कर्मशरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है ।
भगवान् महावीर ने कहा - ' इस क्षण को जानो ।' वर्तमान को जानना और वर्तमान में जीना ही भावक्रिया है । यांत्रिक जीवन जीना, काल्पनिक जीवन जीना और कल्पना - लोक में उड़ान भरना द्रव्यक्रिया है । यह चित्त का विक्षेप है और साधना का विघ्न है । भावक्रिया स्वयं साधना और स्वयं ध्यान है | हम चलते हैं और चलते समय हमारी चेतना जागृत रहती है, 'हम चल
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