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पद्धति और उपलब्धि - १३१ २. उर्ध्वभाग-घुटना, छाती, ललाट, उभरे हए भाग | ३. तिर्यग्भाग-समतल भाग ।
शरीर के अधोभाम में स्रोत हैं, ऊर्ध्वभाग में स्रोत हैं और मध्यभाग में स्रोत-नाभि है।
साधक चक्षु का संयत कर शरीर की विपश्यना करे । उसकी विपश्यना करने वाला उसके अधोभाग को जान लेता है, उसके ऊर्ध्वभाग को जान लेता है और उसके मध्यभाग को भी जान लेता है ।
जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है।
शरीर-दर्शन की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अंतर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल शरीर है । इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं । उनके भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं
और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कर्मशरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है ।
स्थूल शरीर के वर्तमान क्षण को देखने वाला जागरूक हो जाता है । कोई क्षण सुखरूप होता है और कोई क्षण दुःखरूप । क्षण को देखने वाला सुखात्मक क्षण के प्रति राग नहीं करता और दुःखात्मक क्षण के प्रति द्वेष नहीं करता । वह केवल देखता और जानता है।
शरीर की प्रेक्षा करने वाला शरीर के भीतर से भीतर पहुंचकर शरीर धातुओं को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों (अंतरों) को भी देखता
देखने का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसका महत्त्व तभी अनुभूत होता है जब मन की स्थिरता, दृढ़ता और स्पष्टता से दृश्य को देखा जाए ।
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