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१२८ जैन योग
इस स्थिति में अबाध आनन्द और अप्रतिहत शक्ति की धारा प्रवाहित रहती है, किंतु मोह के द्वारा हमारा दर्शन निरुद्ध और ज्ञान आवृत रहता है, इस लिए हम केवल जानने और केवल देखने की स्थिति में नहीं रहते। हम प्रायः संवेदन की स्थिति में होते हैं । केवल जानना ज्ञान हैं। प्रियता और अप्रियता के भाव से जानना संवेदन है । हम पदार्थ को या तो प्रियता की दृष्टि से देखते हैं या अप्रियता की दृष्टि से | पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से नहीं देख पाते । पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से देखना ही समता है । वह केवल जानने और देखने से सिद्ध होती है । यह भी कहा जा सकता हैं कि केवल जानना और देखना ही समता है । जिसे समता प्राप्त होती है वही ज्ञान होता है । जो ज्ञानी है उसी को समता प्राप्त होती है । ज्ञानी और साम्ययोगी - दोनों एकार्थक होते हैं ।
हम इन्द्रियों के द्वारा देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, चलते हैं, स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा मन के द्वारा संकल्प - विकल्प या विचार करते हैं । प्रिय लगने वाले इन्द्रिय-विषय और मनोभाव राग उत्पन्न करते हैं और अप्रिय लगने वाले इन्द्रिय-विषय और मनोभाव द्वेष उत्पन्न करते हैं। जो प्रिय और अप्रिय लगने वाले विषयों और मनोभावों के प्रति सम रहता है, उसके अन्तःकरण में वे प्रियता और अप्रियता का भाव उत्पन्न नहीं करते । प्रिय और अप्रिय तथा राग और द्वेष से परे वही हो सकता है जो केवल ज्ञाता और द्रष्टा होता है । जो केवल ज्ञाता और द्रष्टा होता है वही वीतराग होता है ।
जैसे-जैसे हमारा जानने और देखने का अभ्यास बढ़ता जाता है वैसेवैसे इन्द्रिय-विषय और मनोभाव प्रियता और अप्रियता उत्पन्न करना बन्द कर देते हैं । फलतः राग और द्वेष शांत और क्षीण होने लगते हैं । हमारी जानने और देखने की शक्ति अधिक प्रस्फुटित हो जाती है । मन में कोई संकल्प उठे उसे हम देखें । विचार का प्रवाह चल रहा हो, उसे हम देखें । इस देखने का अर्थ होता है कि हम अपने अस्तित्व को संकल्प से भिन्न देख लेते हैं । संकल्प दृश्य है और मैं द्रष्टा हूं- इस भेद का स्पष्ट अनुभव हो जाता है । जब संकल्प के प्रवाह को देखते जाते हैं तब धीमे-धीमे उसका प्रवाह रुक जाता है । संकल्प के प्रवाह को देखते-देखते हमारी दर्शन की शक्ति इतनी
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