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पद्धति और उपलब्धि - १२९ पटु हो जाती है कि हम दूसरों के संकल्प-प्रवाह को भी देखने लग जाते हैं।
हमारी आत्मा में अखंड चैतन्य है। उसमें जानने-देखने की असीम शक्ति है, फिर भी हम बहुत सीमित जानते-देखते हैं । इसका कारण यह है कि हमारा ज्ञान आवृत्त है, हमारा दर्शन आवृत है । इस आवरण की सृष्टि मोह ने की है। मोह को तथा राग और द्वेष को पोषण मिल रहा है, प्रियता और अप्रियता के मनोभाव से । यदि हम जानने-देखने की शक्ति का विकास चाहते हैं तो हमें सबसे पहले प्रियता और अप्रियता के मनोभावों को छोड़ना होगा । उन्हें छोड़ने का जानने और देखने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है | हमारे भीतर जानने और देखने की जो शक्ति बची हुई है, हमारा चैतन्य जितना अनावृत्त है उसका हम उपयोग करें । केवल जानने और देखने का जितना अभ्यास कर सकें, करें । इससे प्रियता और अप्रियता के मनोभाव पर चोट होगी। उससे राग-द्वेष का चक्रव्यूह टूटेगा | उससे मोह की पकड़ कम होगी । फलस्वरूप ज्ञान और दर्शन का आवरण क्षीण होने लगेगा । इसलिए वीतराग साधना का आधार जानना और देखना ही हो सकता है । इसलिए इस सूत्र की रचना हुई है कि समूचे ज्ञान का सार सामायिक है-समता है । श्वास-प्रेक्षा
श्वास और जीवन-दोनों एकार्थक जैसे हैं । जब तक जीवन तब तक श्वास और जब तक श्वास तब तक जीवन-यह कहा जा सकता है । शरीर
और मन के साथ श्वास का गहरा संबंध है | यह एक ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी-संस्थान, मन और प्राणशक्ति तक पहुंचा जा सकता है | चैतन्य के द्वारा प्राणशक्ति संचालित होती है । प्राणशक्ति के द्वारा मन, नाड़ी-संस्थान और शरीर संचालित होता है । श्वास शरीर की ही एक क्रिया है । इसलिए कहा जा सकता है कि श्वास को देखने का अर्थ है-प्राणशक्ति के स्पंदनों को देखना और उस चैतन्य शक्ति को देखना, जिसके द्वारा प्राणशक्ति स्पंदित होती है।
श्वास दो प्रकार का होता है-सहज और प्रयत्नजनित । प्रयत्न के द्वारा श्वास को दीर्घ किया जा सकता है तथा किसी एक नथुने से लेकर दूसरे नथुने से निकाला जा सकता है।
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