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पद्धति और उपलब्धि
१२७ अप्रियता का भाव आ जाए, राग और द्वेष उभर जाए वहां देखना गौण हो जाता है । यही बात जानने पर लागू होती है ।
हम पहले देखते हैं, फिर जानते हैं । इसे इस भाषा में स्पष्ट किया जा सकता है कि हम जैसे-जैसे देखते जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं । मन से देखने को 'पश्यत्ता' कहा गया है । इन्द्रिय-संवेदन से शून्य चैतन्य का उपयोग देखना और जानना है ।
मध्यस्थ या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है । जो देखता है वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों की उपेक्षा करता है- दोनों को निकटता से देखता है । इसीलिए वह उनके प्रति सम, मध्यस्थ या तटस्थ रह सकता है । उपेक्षा या मध्यस्थता को प्रेक्षा से पृथक् नहीं किया जा सकता । 'जो इस महान् लोक की उपेक्षा करता है-उसे निकटता से देखता है, वह अप्रमत्त विहार कर सकता है ।"
चक्षु दृश्य को देखता है, पर उसे न निर्मित करता है और न उसका फल-भोग करता है । वह अकारक और अवेदक है । इसी प्रकार चैतन्य भी अकारक और अवेदक है । ज्ञानी जब केवल जानता या देखता है तब न वह कर्मबंध करता है और न विपाक में आए हुए कर्म का वेदन करता है । जिसे केवल जानने या देखने का अभ्यास उपलब्ध हो जाता है वह व्याधि या अन्य आगन्तुक कष्ट को देख लेता है, जान लेता है पर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता । इस वेदना की प्रेक्षा से कष्ट की अनुभूति ही कम नहीं होती कितु कर्म के बंध, सत्ता, उदय और निर्जरा को देखने की क्षमता भी विकसित हो जाती है ।
समता
आत्मा सूक्ष्म है, अतीन्द्रिय है, इसलिए परोक्ष है । चैतन्य उसका गुण है । उसका कार्य है जानना और देखना । मन और शरीर के माध्यम से जानने और देखने की क्रिया होती है, इसलिए चैतन्य हमारे प्रत्यक्ष है। हम जानते हैं, देखते हैं, तब चैतन्य की क्रिया होती है । समग्र साधना का यही उद्देश्य है कि हम चैतन्य की स्वाभाविक क्रिया करें। केवल जानें और केवल देखें ।
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