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तपोयोग
संवरयोग : तपोयोग ____ अध्यात्म-साधना के लिए चार तत्त्वों को जानना आवश्यक है । एक वह जिससे दुःख का सृजन होता है । दूसरा वह जो दुःख होता है । तीसरा वह जिससे दुःख का निरोध होता है । चौथा वह जिससे दुःख क्षीण होता है। जिससे दुःख का सृजन होता है वह आस्रव है, जो पहले अध्याय में बताया जा चुका है। जो दुःख होता है वह कर्म है, जो दूसरे अध्याय में बताया जा चुका है | जिससे दुःख का निरोध होता है वह संवर है | जिससे दुःख क्षीण होता है वह तप है । संवरयोग और तपोयोग-ये दो आध्यात्मिक विकास के उपाय हैं । संवर के द्वारा नए दुःख का सृजन रुक जाता है और तप के द्वारा पुराने दुःख क्षीण हो जाते हैं । नए के निरोध और पुराने के क्षय की स्थिति में वह चैतन्य उपलब्ध होता है जो दुःख से अतीत है।
अन्तर्दृष्टि का विकास होने पर मिथ्यादृष्टि से होने वाले दुःख अर्जित नहीं होते । समत्व का विकास होने पर आकांक्षा से होने वाले दुःख अर्जित नहीं होते । अप्रमाद का विकास होने पर चैतन्य की सुषुप्ति से होने वाले दुःख अर्जित नहीं होते । वीतरागता का विकास होने पर दुःख का मूल ही क्षीण हो जाता है | इस अवस्था में शुद्ध चेतना का विकास होता है, मन विलीन
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