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स्मृत करने की बलवती भावना, धृति और उत्साह ने हम सबको प्रोत्साहित किया । कुशल, प्रणिधान आदि अनेक प्रयोगों के द्वारा ध्यान-साधना की पद्धति को उपलब्ध करने का प्रयत्न किया गया और गुरुदेव श्री स्वयं उन प्रयोगों में सतत संलग्न रहे । वे छोटे-छोटे बरगद के बीज आज शतशाखी हो गये और प्रेक्षा ध्यान के रूप में जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण पद्धति प्रचलित हो गई । 'तुलसी अध्यात्म नीडम्' (जैन विश्व भारती) के माध्यम से आयोजित होने वाले शिविरों में उस पद्धति का परीक्षण सफल रहा और साधना करने वालों के मन में साधना के प्रति एक नया आकर्षण पैदा हुआ । इस पुस्तक से जैन योग के शास्त्रीय स्वरूप को ही नहीं किंतु अनुभूत स्वरूप को जानने में भी सहयोग मिलेगा ।
प्रस्तुत पुस्तक में भाषा और शैली की विविधता है । कहीं गूढ़ भाषा और सूत्रात्मक शैली है तो कहीं स्पष्ट भाषा और विस्तृत शैली है । कहींकहीं विषय की स्पष्टता के लिए लिए प्रतिपाद्य की पुनरुक्ति भी है । इसमें साहित्यिक सिद्धांत की कठोरता नहीं बरती गई है किंतु साधना के रहस्यपूर्ण विषय की अरहस्यात्मकता समझ में आ सके, इस दृष्टि से भाषा और शैली के प्रतिबंधों की उपेक्षा की गई है ।
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मुनि दुलहराजजी ने इसका श्रमसाध्य संपादन कर इसे व्यवस्थित रूप दिया और लिपियों और प्रतिलिपियों का एक जटिल कार्य संभव बनाया | स्वर्गीय साहू शांतिप्रसादजी जैन कई बार जैन योग के विषय में एक ग्रंथ उपल्ब्ध करना चाहते थे । उन्होंने मुझे कई बार कहा कि अनेक विदेशी मित्र जैन योग के बारे में जिज्ञासा करते हैं और वे इस विषय में कोई ग्रंथ चाहते हैं । उनके जीवनकाल में उनकी भावना को पूरा नहीं किया जा सका । जैन योग के विषय में गुरुदेवश्री तुलसी के मनोनुशासनम् ग्रंथ की व्याख्या मैंने लिखी । इसी क्रम में मेरे द्वारा लिखित चेतना का ऊर्ध्वारोहण, महावीर की साधना का रहस्य, मन के जीते जीत, प्रेक्षा ध्यान आदि ग्रंथ भी प्रकाश में आए। किंतु 'जैन योग' इस शीर्षक की सीमा में जैन साधना-पद्धति को प्रस्तुत करने का प्रयत्न संभव नहीं हो पाया। एक प्रसंग बना और पूर्व-निर्धारित कार्यक्रमों की बहुलता के उपरांत भी यथासमय मैं 'जैन - योग' को प्रस्तुत कर सका, यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है ।
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मुनि नथमल ( आचार्य महाप्रज्ञ)
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