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ने योग की सरिता प्रबल धारा से प्रवाहित की थी। उनके योग विषयक अनेक ग्रंथ मिलते हैं-अध्यात्मोपनिषद्, अध्यात्मसार, योगावतार-द्वात्रिंशिका । आचार्य हरिभद्र की योगविंशिका पर उन्होंने टीका लिखी । पातंजल योगसूत्र पर उनकी एक वृत्ति है । उसमें जैन-योग का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
वि. सं. २०१८ में गुरुदेवश्री तुलसी ने 'मनोनुशासनम्' लिखा है | इसमें जैन योग का एक नई शैली से प्रतिपादन हुआ है । नमस्कार स्वाध्याय में दो लघुकाय ग्रंथ प्रकाशित हैं । वे जैन योग के क्षेत्र में नया आयाम प्रस्तुत करते हैं । 'पासनाहचरियं' २१ गाथाओं की ध्यान संबंधी सुंदर कृति है । ज्ञानसार, विद्यानुशासन, वैराग्यमणिशास्त्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अनेक ग्रंथ हैं।
जैन आगमों के गंभीर अध्ययन से हर कोई अनुभव करेगा कि उनमें ध्यान की प्रचुर सामग्री है । ध्यान-परम्परा की विस्मृति और अभ्यास के अभाव में उसका मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है | ध्यान साधना के लिए 'आयारो' (आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध) पर्याप्त है । उसमें प्रेक्षा या विपश्यना के तत्त्व बहुत स्पष्टता से प्रतिपादित हुए हैं । परिशिष्ट संख्यांक-२ में 'आयारों' के कुछ सूत्र संकलित हैं । उन्हें पढ़कर इस वास्तविकता को समझा जा सकता है । इस पुस्तक में जैन योग (मुक्ति-मार्ग या संवर-सूत्र) का प्राचीन रूप नये प्रश्नों के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है । क्या जैन योग में चक्रों का स्थान है ? क्या कुंडलिनी के संबंध में कोई चर्चा है ? ये प्रश्न बहुत बार पूछे जाते रहे हैं और साथ-साथ अनुत्तरित भी रहे हैं । उन अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर खोजने का भी विनम्र प्रयत्न किया गया है ।
जैन-योग के दो मुख्य सूत्र हैं-संवर और तप । संवर पांच हैं-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग । साधना की ये ही पांच भूमिकाएं हैं। गुणस्थान इन्हीं का एक विकसित रूप है । ध्यान तपोयेग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । साधना का आदि, मध्य और अंत इसके द्वारा ही संपन्न होता है । धर्म-ध्यान को प्रेक्षा-ध्यान के रूप में एक नया आयाम दिया गया है, जो जैन साधना-पद्धति के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है । संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्रस्तुत पुस्तक जैन योग के विस्मृत अध्यायों की स्मृति का माध्यम बन सकेगी।
गुरुदेवश्री तुलसी ने योग-विद्या के क्षेत्र में अनेक प्रयत्न किए । विस्मृत
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