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________________ 9. साधना की पृष्ठभूमि अस्तित्व का बोध विषय- संकेत : वह दरिद्र कैसे; दुःख का मूल स्व का अपरिचय; पारदर्शी दृष्टि; जागो जगाओ; अपना क्या है; अपनी खोज : एक प्रक्रिया अहं का विसर्जन ममकार और अहंकार; आत्मा का स्वरूप; आत्मा और देह का संबंध क्रियावाद : आस्रव मिथ्यात्व; अविरति; प्रमाद; कषाय; योग; दुःख-सुख के हेतु प्रतिक्रियावाद : कर्म दो महत्त्वपूर्ण खोजें: आत्मा और कर्म; अर्थ क्रिया : द्रव्य का लक्षण; कर्त्ता और कर्म स्वाभाविक : वैभाविक कर्म है कार्यकारण की खोज : प्रवृत्ति है बंधन; कषाय चेतना है चिकनाहट; कषाय बांधता है; कर्म है कार्य, कारण है आस्रव; क्रिया एक : प्रतिक्रिया अनेक; कर्म : प्रतिक्रिया का सिद्धांत; कर्म : संस्कार भी, पुद्गल भी; कर्म के दो अर्थ; कर्म कर्म को बांधता है; बंधन और मुक्ति २. साधना की भूमिकाएं मूढ़ता आधि से व्याधि का निदान; मनोविकार का हेतु : मन की मलिनता, मलिनता का हेतु : मूढ़ता; मूढ़ता से उपाधि; ममकार; अहंभाव, हीनभाव - दोनों बीमारियां; प्रतिशोध : मन का विकार; आक्रामक भावना : एक पागलपन; ईर्ष्या आग है; विकृति से विकृति; शरीर के महत्त्वपूर्ण अवयव शिथिलीकरण: एक प्रतिकार; मूढ़ अवस्था के लक्षण और पहचान; मूढ़ता : अपवित्र आभामंडल, मूढ़ व्यक्ति का ध्यान आर्त्त और रौद्र; एकाग्रता : काम्य, अकाम्य अंतर्दृष्टि (१) अंतर्दृष्टि का सर्जन : मूढ़ता का विसर्जन; अंतर्दृष्टि का अर्थ ; Jain Education International For Private & Personal Use Only १. my ३ १२ १८ २३ 59 ३५ ३७ ५० www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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