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११६ जैन योग
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अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश । जो बाहर से थका हुआ प्रतीत होता है उसे बाहर की कोई भी वस्तु विश्राम नहीं दे सकती, शांति नहीं दे सकती । दो दिशाएं हैं - एक बाहर की, और एक भीतर की । दोनों एक-दूसरे की प्रतिपक्षी दिशाएं हैं ।
अध्यात्म का सोपान : अनुभव
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आज अध्यात्म को एक नया आयाम मिल रहा है । कुछ ऐसा समय आया था जिसमें अध्यात्म की विस्मृति हो गई थी । धर्म को अबौद्धिक मान लिया गया था। लोगों ने समझ लिया था कि धर्म - उस व्यक्ति को करना चाहिए जो अन्य दूसरी दिशाओं में सक्षम न हो । या धर्म के पास वे लोग जाएं जिनकी बौद्धिक क्षमता विकसित न हो । इसका अर्थ यह हुआ कि बौद्धिक आदमी के पास धर्म नहीं या उसके लिए धर्म उपयुक्त नहीं । बुद्धि धर्म के लिए एक दीवार बन गई । यह सही है कि धर्म या अध्यात्म तक पहुंचने के लिए अनुभव ही सहायक हो सकता है, बुद्धि नहीं । बुद्धि बाधा देगी, क्योंकि उसके पास अनुभव नहीं है । जो बात अनुभव के द्वारा जानी जाती है या जिस भूमिका तक अनुभव हमें पहुंचा सकता है वहां तक बुद्धि हमें नहीं पहुंचा सकती । यहां बुद्धि का स्तर नीचे रह जाता है । जब तक स्वयं हम इसका अनुभव नहीं कर लेते तब तक बुद्धि भी सहयोग नहीं करेगी । वह हमें सहारा तो देगी पर अनुभव के बाद । जब हम अनुभव कर लेते हैं तब बुद्धि भी हमें आगे बढ़ने के लिए सहयोग करती है, किंतु जब तक हमारा कोई अनुभव नहीं है तब तक बुद्धि तर्क प्रस्तुत करेगी, एक दीवार खड़ी करेगी, उसमें सहयोगी नहीं बनेगी । अपेक्षा है अनुभव की ।
अध्यात्म की समूची साधना ही अनुभव की साधना है । इसलिए मौन और अकर्म की बात कही जाती है । शरीर का कार्य भी मत करो । शिथिलीकरण कर, शरीर का विसर्जन कर, कायोत्सर्ग से शरीर को त्यागो । शरीर की प्रवृत्तियां मत करो। मन की प्रवृत्ति मत करो । अकर्म, अबात और अचिंतन - ये सारी उल्टी दिशाएं हैं। बुद्धि का काम है- खूब बोलो, सोचो, प्रयत्न करो, चिंतन करो। बुद्धि मनुष्य को कर्म की ओर ले जाती है | अध्यात्म मनुष्य को अकर्म की ओर ले जाता है। यहां अकर्म ही है, कहीं भी क्रिया
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