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साधना की भूमिकाएं
मानसिक आनन्द-ये प्राप्त होते हैं ।
अंतर्दृष्टि की अवस्था में धर्मध्यान का जो विकास होता है उससे और अधिक विकास इस अवस्था में हो जाता है । अध्यात्म विकास की पहली भूमिका में अपायविचय या विपाकविचय का चिंतन मात्र था । इस अवस्था में अपायों के त्याग की स्थिति प्राप्त हो जाती है । धर्मध्यान इतना स्थिर हो जाता है कि त्याग की भावना दृढ़ हो जाती है । इसमें अपायों को छोड़ने, आसवों का कम करने, संवर का विकास करने, निर्जरा की अधिकता यानी दोषों को क्षीण करने की क्षमता बढ़ जाती है और धर्मध्यान बहुत शक्तिशाली हो जाता है । इसके साथ-साथ शुक्लध्यान की अनेक संभावनाएं बढ़ जाती हैं। शुक्लध्यान का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । अतीन्द्रिय बोध स्पष्ट होने लगता है, विपाकों के प्रति दृष्टि निर्मल बनती है, विराग में प्रकर्ष आता है और पदार्थ के प्रति धारणा बदल जाती है ।
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समता का चरम बिन्दु : वीतरागता
अंतर्दृष्टि के जागने पर आत्मा का बोध तो होता है किंतु यह कोई चरम विकास नहीं है । समत्व की दृष्टि में जो विकास होगा वह भी कोई चरम विकास नहीं है । इस विकास को आप इतना - सा जानें कि एक बड़ा हॉल है किंतु उसमें खिड़कियां नहीं हैं। वह अंधेरे में व्याप्त रहेगा । हमारी चेतना, हमारी शक्ति मोह की मूर्च्छा से, कषायों से इतनी आच्छन्न थी कि बाहर प्रकट नहीं हो पा रही थी । केवल मूर्च्छा की तरंगें ही तरंगें व्याप्त थीं । हमने मूर्च्छा की सघन भीत में कुछ खिड़कियां निकाल दीं, चेतना का प्रकाश बाहर आने लगा | अब मूर्च्छा में सघन अंधकार करने की क्षमता नहीं रही । विकास प्रारंभ हो गया । विकास की पूर्णता तब होगी जब मोह की सारी दीवारें ढह जाएंगी, समूचे पर्दे हट जाएंगे, समूचा आवरण टूट जाएगा ।
अंतर्दृष्टि से संपन्न व्यक्ति भी अप्रिय आचरण कर लेता है । समत्व की प्रज्ञा जाग जाने पर भी व्यक्ति अवांछनीय आचरण कर लेता है । यह तब तक करता है जब तक कि प्रमाद उस पर हावी होता है । किंतु महावीर ने कहा-समत्वदर्शी पाप नहीं करता । इसकी संगति कैसे होगी ? इसका भी एक रहस्य है । या तो यह बात उस भूमिका पर कही गयी है जहां समत्व
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