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१०८ - जैन योग पापों का अपनयन । समत्व जागता है तो सावध योग अपने आप व्यक्त हो जाते हैं । जो समत्व के लक्षण हैं, वे प्रकट हो जाते हैं । इन लक्षणों से जान लिया जाता है कि व्यक्ति में समत्व उतरा है । जैसे रोग का अपना एक लक्षण होता है वैसे ही आरोग्य का भी अपना एक लक्षण होता है । विषमप्रज्ञा का एक लक्षण होता है तो समत्वप्रज्ञा का भी एक लक्षण होता है । समत्वप्रज्ञा के जागने पर अहिंसा आदि का विकास अवश्य होगा । हम यह न मानें कि प्रथम चरण में ही व्यक्ति अहिंसा के शिखर पर पहुंच जाता है। किंतु अहिंसा की यात्रा जीवन में शुरू हो जाती है । सत्य का विकास शुरू हो जाता है । वह व्यक्ति वासनाओं से लिप्त नहीं होता | वासनाओं का संयम उसमें प्रकट होने लग जाता है । वह व्यक्ति पदार्थ में लिप्त नहीं होता । अकिंचनता की
ओर उसकी गति होने लग जाती है । ईर्ष्या, अपवाद, उद्वेग, विषाद, घृणा-जितने मानसिक पाप हैं, दोष हैं, वे सारे दूर हट जाते हैं । उनके स्थान पर दूसरे गुण प्रकट हो जाते हैं । __समत्व की प्रज्ञा जाग जाने का दूसरा लक्षण है कि मन समाहित हो जाता है । जिस व्यक्ति को लगे कि उसका मन उलझनों से भरा है, मन समाहित नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि समत्व की प्रज्ञा जागी नहीं है । समत्व की प्रज्ञा जाग जाए और मानसिक उलझनों का भार भी बना रहे, यह संभव नहीं लगता । जब मन की समस्याएं सुलझने लगती हैं, अपने आप समाधान प्रस्तुत होता है तब मानना चाहिए कि समत्व का प्रभाव अभिव्यक्त हो रहा है । ऐसा व्यक्ति ‘समाहितात्मा' कहलाता है । उसका मन पूर्ण समाहित होता है । समस्याएं आती हैं, पर वे मन को उलझा नहीं पातीं । वे हट जाती हैं, दूर चली जाती हैं। समत्व का जागरण : धर्मध्यान की स्थिरता
अध्यात्म की दृष्टि से मूलभूत तथ्य है-सामायिक-समत्व का जागरण | जब सामायिक स्थिर और दृढ़ होता है, तब पाप की समस्त धाराएं पश्चिमाभिमुख हो जाती हैं | समत्व के जागने पर लेश्याओं में भी परिवर्तन ' हो जाता है । लेश्याएं प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम होती चली जाती हैं। पदार्थ-निरपेक्ष आनन्द बढ़ने लगता है | मन की निर्मलता,मन की शांति और
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