________________
९६ - जैन योग जाएं, ध्यान करते चले जाएं अपायविचय ध्यान हो जाअगा। आस्रवों का विचय करें । आस्रवों के कारण अनेक वृत्तियां जागती हैं। उनके कारणों को खोजें । वृत्तियों के हेतुओं को खोजें । यह खोज अपायविचय है। सत्य की यह बहुत बड़ी खोज है।
सबके भीतर सब संज्ञाएं हैं । यह दोष अपने द्वारा किया हुआ संचय है । वह भीतर पड़ा है । हम उसे क्यों छिपाएं ? अपायविचय के द्वारा हम एक-एक कर उसे बाहर निकाल दें। किसी व्यक्ति में भय की संज्ञा प्रबल होती है, किसी में वासना की संज्ञा प्रबल होती है, किसी में परिग्रह की संज्ञा प्रबल होती है और किसी में क्रोध की, किसी में मान की और किसी में माया की वृत्ति प्रबल होती है | ध्यान करने वाले व्यक्ति को यह खोजना चाहिए कि उसमें कौन-सी संज्ञा, कौन-सी वृत्ति प्रबल है ? वह उसका पहले उपचार करे, पहले उसकी चिकित्सा करे । यदि वह उस दोष के उपचार की बात नहीं सोचता और ऐसा अभिनय करता है कि वह तो वीतराग है, दोषों से रहित है तो यह एक भ्रांति होगी। यह अभिनय सत्य की खोज की ओर नहीं ले जाएगा । वह असत्य का पालन करेगा और वह भीतर में रहा हुआ असत्य इतना विस्फोट करेगा कि व्यक्ति और अधिक बुराइयों में फंसेगा । अपायविचय दोषों को दूर करने का महत्त्वपूर्ण उपाय है । हम अपायों का विचय करें, उनका विश्लेषण करें, उनका पृथक्करण करें, उनको देखें, उनकी प्रेक्षा करें । उनको समझें और उनके उपचार के उपायों को काम में लें । विपाकविचय ध्यान
हम बहुत बार देखते हैं कि अनेक प्रकार की वृत्तियां उभरती हैं। कभीकभी अनहोनी बात भी हो जाती है । व्यक्ति ऐसा बन जाता है, जिसकी वह स्वयं या दूसरे भी कल्पना नहीं कर पाते । पचास वर्ष तक आदमी निष्कलंक रहा । एक दिन की वृत्ति उभरी और वह कलंक का भागी हो गया । वह स्वयं समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों हुआ और दूसरे व्यक्ति भी समझ नहीं पाते कि उसने ऐसा क्यों किया । ऐसा होता है । यह भी निर्हेतुक नहीं है। हेतु सहजतया समझ में नहीं आता । उसको समझने के लिए हम विपाक पर ध्यान करें और सोचें कि यह किस अपाय का विपाक है ? हमने कौनसा बीज बोया था, जिसकी यह फलश्रुति है ? बीज को खोजते समय हम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org