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साधना की भूमिकाएं - ९५
नहीं है और पदार्थ पर ध्यान करना कोई साधारण बात नहीं है । एक परमाणु का ध्यान करना और आत्मा का ध्यान करना-दोनों में कोई अन्तर नहीं है । ध्यान ध्यान है । एक परमाणु के ध्यान में जितनी शुद्धता है उतनी ही शुद्धता आत्मा के ध्यान में है । जहां राग-द्वेष नहीं, जहां ज्ञाता क्षेय पर अपने ज्ञान का उपयोग करता है, वह उपयोग की धारा उतनी ही निर्मल है, उतनी ही प्रकाशवान है । कोई अन्तर नहीं सूर्य के प्रकाश में, बिजली के प्रकाश में या दीपक के प्रकाश में । उसमें आप सोने को भी देख सकते हैं और कंकड़ को भी देख सकते हैं । प्रकाश में कोई अन्तर नहीं आएगा । प्रकाश प्रकाश है । उसका काम है वस्तु को प्रकाशित करना । ज्ञेय कैसा है ? क्या है ? इसमें कोई अन्तर नहीं आता । ज्ञाता का स्वभाव है ज्ञेय को जानना । वह ज्ञेय को जानता है, फिर चाहे वह आत्मा के पर्यायों को जाने, पदार्थ के पर्यायों को जाने, विकृतियों के पर्यायों को जाने, कषाय के पर्यायों को जाने, जानने में कोई अन्तर नहीं आता । इसमें एक ही शर्त है कि जानने के साथ रागद्वेष की तरंगें नहीं होनी चाहिए । राग-द्वेष न हो तो कोई अन्तर नहीं आता । फिर चाहे व्यक्ति स्व' का ध्यान करे या 'पर' का ध्यान करे, चाहे धर्म का ध्यान करे या अधर्म का ध्यान करे । चाहे कषाय, उत्तेजना और वासना का ध्यान करे या शांति और मैत्री का ध्यान करे । यदि ध्यान की स्थिति में कोई राग-द्वेष की तरंगें नहीं हैं, कषाय की तरगें नहीं हैं तो ध्यान में कोई अन्तर नहीं आएगा । ज्ञान का काम है सत्य की खोज करना । सत्य की खोज हो जाती है तो आत्मा का निर्मलभाव प्रकट होता है । यदि ध्यान के द्वारा अच्छीअच्छी ही चीजें खोजी जाती तो बुरी चीजें सामने नहीं आतीं । यदि बुरी चीजें नहीं खोजी जाती तो अच्छी चीजों का पता ही नहीं चलता। बुरी चीजों पर ध्यान भी जरूरी है। अपायविचय ध्यान
हम सोचते हैं कि आदमी विकार क्यों करता है ? क्रोध क्यों करता है ? मानसिक विकृतियों का दास क्यों बनता है ? आप ध्यान प्रारंभ करें। सारे के सारे हेतु स्पष्ट हो जाएंगे । आप जान जाएंगे कि अंदर क्रोध वेदनीय कर्म है इसलिए क्रोध आता है, भय वेदनीय कर्म है इसलिए भय आता है। इसी प्रकार प्रत्येक दोष का कारण विद्यमान है । सारे दोषों को खोजते चले
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