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९४ - जैन योग दार्शनिक इस प्रश्न को लेकर बैठता है | चिंतन चलता है । चिंतन करतेकरते एक बिंदु ऐसा आता है कि वह चिंतन ध्यान बन जाता है । उस ध्यान का अभ्यास करते-करते एक दिन इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो जाता है | कि 'सोऽहम्', जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा से आया है ‘वह मैं हूं'-सोऽहम् । इसी के आधार पर आत्मवाद का पहला प्रश्न समाहित हुआ है । जो ज्ञाता और द्रष्टा है वह मैं हूं । जो बाहर का वातावरण हैं, दिग्काल आदि है, वह मैं नहीं हूं । जो बाहर का परिवेश है वह मैं नहीं हूं। जो शरीर है वह मैं नहीं हूं | जो वासनाएं और कषाय हैं वह मैं नहीं हूं | जो संज्ञाएं हैं वह मैं नहीं हूं । इन सबसे परे जो केवल ज्ञाता और द्रष्टा है, अरूपी सत्ता है, शुद्ध चैतन्य है, वह मैं हूं-सोऽहम् ।
ध्यान सत्य को खोजने की प्रक्रिया है । जितने भी सत्य खोजे गए हैं, वे सब ध्यान के माध्यम से ही खोजे गए हैं । चंचल चित्त वाले व्यक्ति ने कभी किसी नए सत्य की खोज नहीं की। उसने तर्कों और विकल्पों के द्वारा सत्य को तोड़ा-मरोड़ा है । उसने विकल्पों का जाल बिछाया है, पर उसे कभी सत्य हाथ नहीं लगा । चंचल चित्त वाला व्यक्ति कभी सत्य को नहीं खोज सकता । जिसे भी सत्य खोजना होता है उसे चित्त की स्थिरता में, शांतता में प्रवेश करना ही पड़ेगा। 'संसार क्या है ?' इसे खोजते-खोजते उसका स्वरूप स्पष्ट रूप से सामने प्रकट हो जाता है । ईथर की खोज हुई । चिंतन के आधार पर, ध्यान के आधार पर, मन की स्थिरता के आधार पर यह सोचा गया कि पदार्थ की गति का कोई माध्यम होना चाहिए । जहां माध्यम नहीं होता, वैक्यूम होता है वहां भी गति होती है । शून्यता में भी गति होती है तो उस गति का कोई-न-कोई माध्यम अवश्य होना चाहिए । इसी चिंतन से ईधर की खोज हुई। अतीन्द्रिय सत्यों की खोज का आधार
इन्द्रियों से परे भी कुछ है-इस चिंतन ने अतीन्द्रिय सत्यों को खोज लिया । आज्ञा-विचय ध्यान बन गया ! चाहे आत्मा को खोजें, चाहे इस प्रश्न पर ध्यान करें कि मैं कौन हूं ? चाहे इस प्रश्न पर ध्यान करें कि जगत् क्या है ? –इनमें कोई अन्तर नहीं है । आत्मा पर ध्यान करना कोई विशेष बात
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