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साधना की भूमिकाएं - ९३ टिक जाता है । एकतानता, एकलयता, एकचित्तवृत्ति, एकज्ञानवृत्ति बनती है । तब ध्यान सधता है । ध्यान के लिए कुछ आलंबन आवश्यक होते हैं। एक आलंबन है शब्द का, एक है श्वास का, एक है रूप का । जब हमारी क्षमता का विकास होता है तब सभी आलंबनों को छोड़कर मन निरालंब हो जाता है । तब ध्यान की प्रगाढ़ता आ जाती है । निर्वातगृह में स्थित दीपक की भांति चित्त लीन हो जाता है । निर्वातगृह में रखा हुआ दीपक बुझता है किंतु मन इतना लीन हो जाता है कि सूर्य की भांति प्रकाश निरंतर बना रहता है। उस समय शुक्लध्यान की स्थिति बन जाती है। किंतु प्रारंभकाल में आलंबन जरूरी है। सत्य की खोज ध्यान से
‘अप्पणा सच्चमेसेज्जा'-स्वयं सत्य की खोज करो । सत्य की खोज के लिए ध्यान आवश्यक है । आप सोच सकते हैं कि आज का वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से सत्य की खोज करता है । यह सही है । किंतु इसका स्थान दोयम है | प्रथम स्थान है-धर्म-ध्यान का । वैज्ञानिक वस्तुओं के धर्मों का, पर्यायों का ध्यान करता है और ध्यान करते-करते उसमें कोई मत प्रगट होता है । फिर वह यंत्रों का माध्यम लेकर उस मत की जांच करता है । वैज्ञानिक जब खोज में खोया रहता है तब कभी-कभी ऐसा होता है कि उसे अकस्मात् कुछ सूझता है, अकस्मात् उसके ध्यान में कुछ आता है और वह उसे एक हाइपोथिसिस मानकर आगे की खोज करता है, परीक्षण करता है और एक सचाई हाथ लग जाती है । ध्यान की अवस्था में ही सचमुच सत्य उतरता है । ध्यान करने वाला सोता है तो सोते समय भी उसके मस्तिष्क में सत्य उतर आता है, जागते समय भी उतर आता है और बैठे-बैठे भी उतर आता है । उस समय ऐसा लगता है कि मानो कोई शक्ति सत्य को संप्रेषित कर रही है । वह कह उठता है-यह रही सचाई, यह रही सचाई, यह रही सचाई। सारी सचाइयां प्रकट होने लगती हैं। चिंतन चलता है और वह चिंतन लंबे काल में ध्यान बन जाता है । कोऽहं सोऽहं
'कोऽहम्'-मैं कौन हूं-यह दर्शन जगत् का बहुत बड़ा प्रश्न है ।
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