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अंतर्दृष्टि (५)
मन की सिद्धि
I
अंतर्ज्योति का एक रूप है - अनुप्रेक्षा, और दूसरा रूप है - ध्यान । घनीभूत अनुप्रेक्षा ध्यान बन जाती है । पानी जमता है, बर्फ बन जाता है । बूंद की निरंतरता धार बन जाती है । इसी प्रकार चेतना की निरंतरता ही ध्यान है | चेतना का घनीभूत होना ही ध्यान है । पारद तरल है, अत्यंत तरल है । वह भी घनीभूत होकर स्थिर हो जाता है । जो चंचल होता है, वह स्थिर भी होता है । मन चंचल है। कोई मन को पकड़ना चाहे तो पकड़ नहीं सकता । मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मन की चंचलता को नहीं रोका जा सकता । किंतु जब तरल पारद को बांधा जा सकता है तो मन को क्यों नहीं बांधा जा सकता ? उसे घनीभूत क्यों नहीं किया जा सकता ? उसे क्यों नहीं पकड़ा जा सकता ? 'रसवच्चंचलं मनः’-मन रस ( पारद) की तरह चंचल है । पारद को सिद्ध करने पर अनेक उपलब्धियां होती हैं । मन को सिद्ध करने पर भी अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं । पारद को सिद्ध करने पर संसार में ऐसा क्या है जो सिद्ध नहीं होता ? इसी प्रकार मन को साध लेने पर ऐसा क्या है जो नहीं साधा जा सकता ? तरलं पारद उपाय से सिद्ध होता है, वैसे ही चंचल मन उपाय से सिद्ध होता है । उपायों का आलम्बन लेकर मन को सिद्ध करना ही ध्यान है । अनुप्रेक्षा करते-करते जब चंचलता समाप्त हो जाती है, कषाय शांत हो जाता है तब मन की गंभीरता बढ़ती जाती है और एक बिंदु पर मन
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