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साधना की भूमिकाएं - ८७ है ? यदि यह है तो वह बहुत तथ्यपूर्ण नहीं है ।
अध्यात्म के आचार्यों ने प्रवृत्ति के आधार पर यह नहीं कहा कि इन्द्रियों का संयम करो, मन का संयम करो, मन की उछंखलता को सीमित करो, नियंत्रित करो । यदि इसी आधार पर कहते तो यह बहुत तथ्यपूर्ण कथन नहीं होता । उन्होंने हेतु और परिणाम के आधार पर प्रवृत्ति के संयम की बात कही। ___एक कुशल वैद्य केवल औषधि पर ही ध्यान नहीं देता | वह पथ्य पर भी ध्यान देता है । वह अमुक-अमुक प्रकार के भोजन का निषेध करता है क्योंकि वह जानता है, अमुक प्रकार के भोजन का परिणाम क्या होगा । वह परिणाम पर विचार करके ही ऐसा करता है । वह पूर्वभुक्त भोजन को समझकर तथा भविष्य में उस भोजन से होने वाले परिणामों को ध्यान में रखकर भोजन का निषेध करता है, पथ्य का विधान करता है | प्रवृत्ति की कसौटी : परिणाम
पांचों इन्द्रियों के जितने विषय हैं, मन के जितने विषय हैं, चाहे स्मृति हो या कल्पना ये सब वर्तमान में मनोज्ञ लगते हैं, प्रिय और मधुर लगते हैं। फिर भी अध्यात्मवेत्ताओं ने कहा कि इनमें मत फंसो, क्योंकि इनका परिणाम सुन्दर नहीं होगा । ये सब आपातभद्र होते हैं, इनका परिणाम विरस होता है । प्रवृत्ति में कोई असुन्दरता नहीं है, कोई अप्रियता नहीं है, किंतु जिसका परिणाम सुन्दर नहीं होता, वस्तुतः वह प्रवृत्ति भी सुन्दर नहीं होती । अध्यात्म की भाषा बदल जाती है। अध्यात्मविद् उसे सुख नहीं कहते जो प्रवृत्तिकाल में सुख-सा लगता है । वे उसे दुःख नहीं कहते जो प्रवृत्तिकाल में दुःख-सा लगता है । वे उसे सुख कहते हैं जिसका परिणाम सुखद होता है । वे उसे दुःख कहते हैं जिसका परिणाम दुःखद होता है । उनकी भाषा ही भिन्न होती
जब अंतर्दृष्टि जागती है तब प्रवृत्ति-केंद्रित दृष्टि नहीं रहती । वह तीन आयामों में फैल जाती है । हेतु और परिणाम के बीच होती है प्रवृत्ति । हेतु
और परिणाम के आधार पर प्रवृत्ति की सुन्दरता और असुन्दरता का निर्णय होता है।
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