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८६ - जैन योग के जाल में नहीं फंसता, जैसे मूढ़ अवस्था वाला व्यक्ति फंसता जाता है । मूढ़ अवस्था वाला व्यक्ति एक समस्या को मिटाना चाहता है किंतु पांच नई समस्याएं खड़ी कर लेता है । अंतर्दृष्टि के जागने पर नए-नए मोह निर्मित नहीं होते । व्यक्ति का दृष्टिकोण इतना ऋजु हो जाता है कि वह समस्या का उचित समधान ढंढ़ लेता है, नई समस्याएं उत्पन्न नहीं करता । उसका अनन्त अनुबंध समाप्त हो जाता है । चिन्तन के तीन आयाम
__ अंतर्दृष्टि का चौथा लक्षण है-प्रवृत्ति केंद्रित नहीं होना । जिस व्यक्ति की अंतर्दृष्टि जाग जाती है वह प्रवृत्ति-केंद्रित नहीं होता । मूढ़ व्यक्ति प्रवृत्तिकेंद्रित होता है । वह अपने चारों ओर प्रवृत्तियों का जाल बुन लेता है । वह प्रकृति को ही प्रधान मानकर चलता है । अंतर्दृष्टि से संपन्न व्यक्ति प्रवृत्ति को देखता है तो उसके पीछे रहे हुए हेतु को भी देखता है । इतना ही नहीं, वह होने वाले परिणाम को भी देखता है । उसके चिंतन के तीन आयाम होते हैं-प्रवृत्ति, हेतु और परिणाम | उसका दृष्टिकोण त्रि-आयामी बन जाता है । कोई दुःख आया या कोई सुख आया, वह केवल दुःख या सुख को नहीं देखेगा । वह देखेगा कि दुःख का हेतु क्या है ? वह देखेगा कि दुःख का परिणाम क्या होगा ? वह देखेगा कि सुख का हेतु क्या है ? वह देखेगा कि सुख का परिणाम क्या होगा ? प्रवृत्ति का संयम क्यों ? __अध्यात्म के आचार्यों और तत्त्ववेत्ताओं ने इस बात पर बहुत बल दिया कि इन्द्रियभोग का संयम करो; मानसिक तरंगों और कल्पनाओं का संयम करो; मन की उच्छृखलता का संयम करो । किंतु असंयम जितना अच्छा लगता है, संयम कभी उतना अच्छा नहीं लगता | जितना सुख असंयम में प्रतीत होता है, संयम में कोई सुख प्रतीत नहीं होता । फिर अध्यात्म के आचार्यों ने ऐसा क्यों कहा? क्या संसार के प्रवाह से विपरीत चतना ही अध्यात्म है ? यदि ऐसा है तो बहुत ही अग्राह्य मार्ग है। वह कभी ग्राह्य नहीं हो सकता। क्या जो प्रत्यक्ष अनुभव में आ रहा है, उसे उलट देना ही अध्यात्म का मार्ग
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