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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
तिर्यक् - सामान्य और ऊर्ध्वता - सामान्य- इन दो प्रकार के सामान्य की चर्चा के उपरान्त ग्रंथकर्त्ता श्री रत्नप्रभसूरि विशेष के दो प्रकार गुण और पर्याय की चर्चा प्रारंभ करते है । पर्याय शब्द को कहीं पर सर्वविशेष का वाचक माना जाता है, फिर भी यहाँ पर पर्याय शब्द के साथ गुण शब्द का विधान किए जाने पर मात्र क्रमवर्ती - विशेष - पर्याय को ही वाचक के समान ग्रहण किए जाने की चर्चा है । गुण और पर्याय, विशेष के इन दो भेदों में से सर्वप्रथम गुण को ही समझाने की चर्चा की है। यहाँ पर आत्मा में रही हुई विज्ञान- व्यक्ति और विज्ञान - शक्ति को गुण कहे जाने की चर्चा की गई है। यहाँ पर यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा है कि सुख-दुःख परिस्पन्दन सदाकाल सहभावी न होने के कारण इन तीनों को गुण कैसे कहा जा सकता है ? की चर्चा की गई है। इसके उपरान्त, आठवें सूत्र की व्याख्या में आत्मा के साथ सहभावी रूप से रहे हुए धर्म को गुण कहे जाने की तथा क्रमभावी - रूप से रहे हुए धर्म को पर्याय कहे जाने की चर्चा की गई है। तत्पश्चात्, प्रश्नकर्त्ता द्वारा प्रश्न उठाए जाने की चर्चा है कि जो गुण है, वही पर्याय है तथा जो पर्याय है, वही गुण है, तो गुण और पर्याय की भिन्नता को किस प्रकार से समझे जाने की चर्चा की गई है ? समाधान के रूप में रत्नप्रभ द्वारा ज्ञान - त्रैकालिक होने से गुण और उसकी मात्रा एककालीन होने से पर्याय हाने की चर्चा की गई है तथा धर्मी की अपेक्षा से अभेदरूप और स्वरूप की अपेक्षा से भेदरूप की चर्चा की गई है।
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प्रस्तुत - ग्रन्थ के पंचम परिच्छेद में सर्वप्रथम तो विशेष के प्रकारों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि विशेष दो प्रकार का होता हैगुणरूप और पर्यायरूप । इसमें वस्तु के जो सहभावी धर्म होते हैं, उनको गुण कहा जाता है और जो क्रमभावी धर्म होते हैं, उनको पर्याय कहा जाता है। इसी प्रसंग में जहाँ न्याय-वैशेषिकदर्शन गुण को द्रव्य से सर्वथा भेद मानता है, वहीं बौद्धदर्शन गुण और पर्याय को पदार्थ से अभिन्न मानता है, अतः, इस प्रकरण में जैनाचार्यों ने न्याय-वैशेषिक दर्शन और बौद्धदर्शन की समीक्षा करते हुए यह बताया है कि गुण और पर्याय का पदार्थ से न तो सर्वथा - भेद है और न सर्वथा - अभेद है, अपितु वे न तो एकान्तरूप से भिन्न हैं और न अभिन्न हैं । अतः रत्नप्रभसूरि ने इस प्रसंग में नैयायिकों और बौद्धों दोनों की समीक्षा की है। नैयायिकों की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं कि धर्म और धर्मी न तो एकान्तरूप से भिन्न हो सकते हैं और न अभिन्न हो सकते हैं। पदार्थों की पर्यायें ही भूतकाल की पर्यायों की अपेक्षा से पदार्थ से भिन्न होती हैं। जैसे घट काल में पूर्वकाल की
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