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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 387 (सामान्य) का वाचक है, तो उस जाति को तो क्षणजीवी नहीं माना जा सकता, अतः, शब्द सामान्य या जाति का वाचक है- यह कहना भी बौद्ध-दार्शनिकों के लिए अयुक्तिसंगत था। उनकी दृष्टि में सामान्य या 'जाति' भी काल्पनिक ही है, वह भावात्मक नहीं हो सकती है, अतः, उनके लिए निषेध-रूप अपोह की कल्पना ही समुचित थी। यद्यपि बौद्ध-दार्शनिक शब्द में वाचक-शक्ति को चाहे अव्यक्त रूप से स्वीकार भी कर लें, किन्तु उनकी समस्या यह है कि शब्द का वाच्य-विषय तो क्षणिक, निरंश और स्वलक्षणरूप है, जिसे किसी भी स्थिति में वाचक नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि जिस शब्द द्वारा उसे वाच्य बनाया जाएगा, उसके उच्चारणकाल में ही वह तो नष्ट हो जाएगा, अतः, क्षणिक और निरंश स्वलक्षण में संकेत ग्रहण होना संभव नहीं है, साथ ही जब बौद्धों के अनुसार सामान्य भी काल्पनिक है, तो काल्पनिक सामान्य में भी शब्द-संकेत का ग्रहण संभव नहीं है, क्योंकि सामान्य अवस्तुरूप होने से अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है। यदि यह माना जाए कि शब्द असंकेतिक-अर्थ को वाच्य बनाते हैं, तो यह कथन भी आत्मविरोधी सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में, बौद्धों की यह मजबूरी थी कि वे केवल यह मानें कि शब्द अन्य का अपोह या निषेध-मात्र करता है। वस्तुतः, बौद्धों का यह अन्यापोह का सिद्धांत उनके क्षणिकवाद का ही तार्किक-प्रतिफलन था। यही कारण था कि जैन-दार्शनिक अकलंक, विद्यानंदी, वादिदेवसूरि, रत्नप्रभसूरि आदि ने अपोहवाद का निरसन कर यह बताने का प्रयास किया है कि शब्द 'गो 'अगों की निवृत्ति करने के साथ ही उसके गोत्व का प्रतिपादन भी करता है, इसलिए शब्द का वाच्य-विषय सामान्य-विशेषात्मक परिणामी-नित्य वस्तु ही है- ऐसा मानना ही उचित होगा। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि रत्नकीर्ति आदि कुछ बौद्ध-दार्शनिकों ने भी अन्यापोह को केवल निषेधरूप न मानकर विधि-निषेधरूप माना है, क्योंकि यदि अन्यापोह को एकान्तरूप से निषेधपरक ही माना जाएगा, ती शब्द से जन-साधारण की अर्थ में प्रवृत्ति भी संभव नहीं होगी, अन्यथा शब्द का उच्चारण जिस अर्थ में प्रवृत्ति करने के लिए किया गया, उसके नष्ट हो जाने से उसकी प्रवृत्ति अन्य अर्थ में होगी, इसीलिए जैन-दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध मानते हुए यह माना है कि शब्द अपने अर्थ के प्रतिपादन में विधि-निषेधरूप होता है। इस संदर्भ में, डॉ. धर्मचंद जैन का निम्न कथन ही हमें अधिक उपयुक्त जान पड़ता है, वे लिखते हैं कि 'यह मानना उपयुक्त होगा कि प्रत्येक शब्द जिस प्रकार विधि-अर्थ का वाचक होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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