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________________ 386 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा और इस संबंध में धर्मोत्तर की सभी शंकाओं का समाधान भी किया है और यह बताया है कि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध माने बिना परपक्ष का खण्डन एवं स्वपक्ष का मण्डन भी सम्भव नहीं होगा। शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य-संबंध और तदुत्पत्ति-संबंध की समीक्षा में जहाँ रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर के तर्कों का समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं, वहीं वाच्य-वाचक-संबंध की समीक्षा में रत्नप्रभ बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर को ही पूर्वपक्ष बनाकर तथा स्वयं जैन-दर्शन को उत्तरपक्ष बनाकर वाच्य-वाचक-संबंध की सिद्धि करते हैं। वे कहते हैं कि किसी भी ग्रन्थ की रचना का प्रयोजन शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध माने बिना सिद्ध नहीं होगा, अतः, शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध मानना तो आवश्यक ही है, अन्यथा आप बौद्ध-दार्शनिकों ने जो अपने दर्शन के ग्रन्थ बनाए हैं और जैन तथा अन्य-दार्शनिकों का जो खण्डन किया है, उसकी भी कोई सार्थकता नहीं होगी। इस शोधग्रन्थ के षष्ठ अध्याय में रत्नाकरावतारिका के चतुर्थ परिच्छेद में शब्दार्थ-संबंध को लेकर विभिन्न दार्शनिक-मतों (नैयायिकों, बौद्धों और जैनों) में जो मतभेद हैं, उन्हें स्पष्ट करते हुए बौद्ध-दर्शन के अपोहवाद की समीक्षा की गई है। यह स्पष्ट है कि बौद्ध-दार्शनिकों द्वारा अपोहवाद मुख्यतः शब्द और उसके वाच्यार्थ को स्पष्ट करने के उद्देश्य से ही प्रस्तुत किया गया है, अतः, रत्नाकरावतारिका में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के अपोहवाद का तार्किक-दृष्टि से प्रस्तुतिकरण करके उसका खंडन किया है। रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि सर्वप्रथम नैयायिकों के शब्दार्थ-संबंध की समीक्षा के पश्चात् बौद्धों के अपोहवाद की समीक्षा करते हैं। बौद्धों के समक्ष मीमांसा का शब्द और अर्थ के तादात्म्य-संबंध का सिद्धान्त और नैयायिकों का तदुत्पत्ति का सिद्धान्त उपस्थित था, किन्तु बौद्धों की कठिनाई यह थी कि शब्द और अर्थ में न तो वे तादात्म्य-संबंध को स्वीकार कर सकते थे और न ही तदुत्पत्ति-संबंध को स्वीकार कर सकते थे, क्योंकि ये दोनों ही संबंध तार्किक-दृष्टि से उन्हें सदोष ही प्रतीत हो रहे थे। यह भी निश्चित ही है कि धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर आदि बौद्ध-चिन्तकों के समक्ष जैनों का वाच्य-वाचक-संबंध भी उपस्थित रहा ही होगा, किन्तु उनका क्षणिकवाद का सिद्धान्त इसके भी विरोध में जाता था। यदि बौद्धों के अनुसार सत्ता क्षणिक है, तो ऐसी स्थिति में शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध भी संभव नहीं है। यदि शब्द किसी 'जाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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