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________________ 384 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सादृश्यता की स्थापना करता है। रत्नाकरावतारिका में क्षणिकवाद और संतानवाद- इन दोनों सिद्धान्तों की जो समीक्षा की गई है, वह वस्तु को एकांत क्षणिक मानकर ही की गई है। यह सत्य है कि क्षणिकवाद संतानवाद के साथ मिला हुआ है, लेकिन ज्ञातव्य तो यह है कि जहाँ क्षणिकवाद वस्तु की परिवर्तनशीलता को सूचित करता है, वहीं संतानवाद इस परिवर्तनशीलता के बीच रही हुई सदृशता को प्रस्तुत और स्पष्ट भी करता है, जिससे वस्तु जैसी है वैसी ही अर्थात् 'वही प्रतीत होती है। इन दोनों सिद्धान्तों को जब हम एक साथ देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे जैन-दर्शन द्वारा मान्य वस्तु की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता को ही प्रस्तुत कर रहे हैं। उनका सन्तान की सादृश्यता का सिद्धान्त वस्तुतः सापेक्षिक-ध्रौव्यात्मकता का ही सूचक है। यद्यपि उनके अनुसार यह सादृश्यता पूर्ण सादृश्यता न होकर मात्र सादृश्यता का आभास ही है, फिर भी पूर्वक्षण और उत्तरक्षण को जोड़ने वाला बौद्ध-दर्शन में यदि कोई आधार है, तो वह संतानवाद ही है। इस प्रसंग में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों की आलोचना एकान्त-क्षणिकवाद मानकर ही की है, जबकि बौद्ध एकान्त-क्षणिकवादी नहीं हैं, किन्तु फिर भी यह सत्य है कि बौद्ध-ग्रन्थों में वस्तु की क्षणिकता की यह धारणा अधिक मुखर होकर प्रकट हुई है और यही कारण है कि अन्य दार्शनिकों ने उन्हें एकान्त-क्षणिकवादी या उच्छेदवादी मानकर ही उनकी आलोचना की है। भगवान बुद्ध ने सदैव ही एकान्त-उच्छेदवाद का विरोध किया था। वे स्पष्ट रूप से कहते थे कि मैं न तो उच्छेदवादी हूँ और न शाश्वतवादी, अतः, बौद्धों के क्षणिकवाद और संततिवाद को मिलाकर देखना होगा। यदि हम ऐसा करेंगे, तो जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन में वह दूरी नहीं रह जाएगी, जैसी सामान्यतया समझी जाती है। बौद्धों का सन्ततिवाद वस्तुतः जैनों के उत्पाद-व्यय के मध्य रहे हुए सापेक्षिक-ध्रौव्य का अपनी दृष्टि से किया हुआ रूपान्तरण ही है। इस शोध-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में त्रिपिटक-साहित्य में प्रस्तुत अनात्मवाद के स्वरूप को सूचित करते हुए यह दर्शाने का प्रयास किया है कि बौद्ध-अनात्मवाद उनकी दृष्टि से समीचीन है। बौद्ध-अनात्मवाद का अर्थ आत्मा नहीं है- यह मान्यता उचित नहीं है। भगवान् बुद्ध ने 'कूटस्थनित्य आत्मा का निषेध किया था। वे परिणामी या तरल आत्मा को तो स्वीकार करते ही हैं। बुद्ध का स्पष्ट निर्णय था- आत्मा के संबंध में न मैं शाश्वतवाद को मानता हूँ और न ही उच्छेदवाद को मानता हूँ। अनात्मा का अर्थ आत्मा नहीं है- ऐसा कहना वस्तुत: उच्छेदवाद का समर्थन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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