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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
383 यह सुनिश्चित किया है कि रत्नाकरावतारिका ईस्वी सन् की बारहवीं शताब्दी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसी क्रम में, हमने आगे रत्नाकरावतारिका की विषय-वस्तु का भी संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है और उसमें हमने यह देखने का प्रयत्न किया है कि रत्नाकरावतारिका अपने युग के सभी दार्शनिक-प्रस्थानों, यथा- न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, वैयाकरणिक, बौद्ध एवं वेदांतों के मतों की समीक्षा प्रस्तुत करती है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि बौद्ध-दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं की दार्शनिक-समीक्षा हमें रत्नाकरावतारिका में जितने विस्तार से मिलती है, वैसी अन्यत्र अल्प ही है। अग्रिम अध्यायों में हमने क्रमशः बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद, सन्ततिवाद, अनात्मवाद, शब्दार्थ-संबंध, अपोहवाद, निर्विकल्प-प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञा एवं तर्क की अप्रमाणता, श्रवणेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता, प्रत्यक्ष की निर्विकल्पता, सामान्य की काल्पनिकता, हेतु के त्रिलक्षण, शून्यवाद, विज्ञानवाद की बाह्यार्थ के निषेध आदि अवधारणाओं की समीक्षा की है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति में विभिन्न भारतीय-दर्शनों की दार्शनिक अवधारणाओं का जहाँ भी जैन-दर्शन से मतभेद रहा है, वहाँ उनके पूर्वपक्ष को विस्तार के साथ उपस्थित करके उनकी समीक्षा की है। इस प्रकार, यह ग्रन्थ न केवल जैन-दर्शन के संबंध में हमें जानकारी प्रदान करता है, अपितु विविध भारतीय-दार्शनिक-अवधारणाओं और दार्शनिक-मतों को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी करता है। रत्नाकरावतारिका की यह भी विशेषता रही है कि इसमें अन्य दर्शनों के पूर्वपक्ष को स्थापित करते हुए पूरी प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है, साथ ही उनके पूर्वपक्ष की स्थापना में संभावित और भी क्या तर्क हो सकते हैं, उन्हें भी विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रकार, यह ग्रन्थ न केवल जैन-न्यायशास्त्र बन गया है, अपितु समग्र भारतीय-न्यायशास्त्र का भी एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बन गया है।
प्रस्तुत शोधग्रन्थ के तृतीय अध्याय में बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा की गई है तथा क्षणिकवाद और संतानवाद को एक-दूसरे का पूरक बताया गया है। जहाँ क्षणिकवाद नदी की धारा की तरह वस्तु की परिवर्तनशीलता को बताता है, वहीं संतानवाद पूर्वक्षण और उत्तरक्षण की वस्तु के सापेक्षिक-सादृश्य को भी स्पष्ट करता है। बौद्धों का संतानवाद तो उनके क्षणिकवाद का ही एक पूरक पक्ष है, जो परिवर्तन के बीच भी
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