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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा केवल विशेषण-एकदेश-असिद्ध और विशेष्य-एकदेश-असिद्ध- इन दो असिद्धों की समीक्षा करते हुए यह कहा गया है कि ये दोनों प्रकार के असिद्ध-हेत्वाभास जैनों की दृष्टि में संभव ही नहीं हैं। इसके साथ ही, रत्नप्रभसूरि का यह भी कहना है कि किसी भी प्रकार का असिद्ध हेत्वाभास हो, वह उभय-असिद्ध अथवा अन्यतर-असिद्ध हेत्वाभास के इन दो भेदों में अन्तर्भूत हो ही जाता है, क्योंकि कोई भी असिद्ध-हेत्वाभास या तो वादी और प्रतिवादी- दोनों को अमान्य होगा, अथवा प्रतिवादी आदि किसी एक को अमान्य होगा, अतः, असिद्ध-हेत्वाभास के उभय-असिद्ध और अन्यतरासिद्ध- इन दोनों भेदों में सभी प्रकार के असिद्ध-हेत्वाभास समाहित हो जाते हैं। यद्यपि हेत्वाभास के इस प्रसंग में बौद्धों के साथ-साथ नैयायिकों के मत की भी विस्तार से समीक्षा की गई है, किन्तु प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध बौद्ध-मत की समीक्षा तक ही सीमित होने के कारण हम यहाँ उसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं। बौद्धों के असाधारणानेकान्तिक (अनेकान्तिक) हेत्वाभास की समीक्षा
बौद्धों के अनुसार, हेत्वाभास का नौवाँ प्रकार असाधारण अनेकान्तिक-हेत्वाभास है, जो उनकी बुद्धिमत्ता को दर्शाने वाला नहीं है, अर्थात् अनावश्यक है।
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिकों के कथन का आशय यह है कि 'शब्दः नित्यः श्रावणत्वात'- इस अनुमान में श्रावणत्वात् हेतु असाधारण अनेकान्तिक-हेत्वाभासरूप है। जिस अनुमान में हेतु सपक्ष में और विपक्ष में- दोनों में सर्वथा व्यावृत्त (निषेधरूप) हो और मात्र पक्ष में ही रहता हो, तो वह हेतु असाधारण अनेकान्तिक-हेत्वाभास कहलाता है। तर्कसंग्रह में भी "सपक्ष विपक्ष व्यावृत्तः पक्षमात्रवृत्तिः असाधारण:'- ऐसा सूत्र है, परन्तु इसके बारे में बौद्धदर्शन में सूक्ष्मता से विचार नहीं किया गया है। 90
जैन - इस अनुमान में यह प्रश्न उठता है कि क्या 'श्रावणत्व' हेतु "एकांतत:-नित्य' ऐसे साध्य की सिद्धि करता है ? या 'कथंचित्-नित्य' ऐसे साध्य की सिद्धि करता है ? यदि श्रावणत्व हेतु सर्वथा नित्य-साध्य की सिद्धि करता हो, तो वह विरुद्ध-हेत्वाभास है और यदि वह 'कथंचित-नित्य' साध्य की सिद्धि करता हो, यह हेतु सम्यक-हेतु ही है,
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579 रत्नाकरायतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 64 580 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 124
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