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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा जाए, तो अनुमान - आभास होगा। अनुमान के इन पाँचों प्रकारों के आभासों में से प्रथम साध्याभास (पक्षाभास) के तीन भेद होते हैं- 1. प्रतीत - साध्य 2. निराकृत - साध्य 3. अनभीप्सित साध्य । विरुद्ध हेत्वाभास के संदर्भ में बौद्धों के मंतव्य की समीक्षा जैन, नैयायिक, वैशेषिकादि कितने ही दार्शनिकों के अनुसार जो हेतु साध्य के विरुद्ध ( विरोधी) तथ्य को सिद्ध करता हो, तो वह हेतु विरुद्ध- हेत्वाभास कहलाता है- ऐसी उपर्युक्त दार्शनिकों की मान्यता है, किन्तु बौद्ध - दार्शनिकों की मान्यता इससे कुछ भिन्न है । रत्नप्रभसूरि, प्रथम बौद्धों के पूर्वपक्ष का प्रस्तुतिकरण करके पश्चात् उसका खण्डन करते · 562 563 बौद्ध - पूर्वपक्ष जिससे धर्मी (पक्ष) के स्व-स्वरूप से विपरीत स्वरूप की सिद्धि हो, वह, अथवा जिससे धर्मी (पक्ष) के किसी विशेष-धर्म से विपरीत धर्म की सिद्धि हो, वे दोनों विरुद्ध हेत्वाभास कहलाते हैं, ऐसा बौद्ध - दार्शनिक मानते हैं; किन्तु वे वस्तुतः हेत्वाभास नहीं हैं- ऐसा जैनों का मानना है, क्योंकि जो मात्र साध्य के स्वरूप के विपर्यय (विरुद्ध) का साधक होता है, उसी को अन्य सभी दार्शनिक विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं, अन्यथा तो बौद्धों के उपर्युक्त दोनों विरुद्ध - हेत्वाभास मानने पर तो अनुमान का भी उच्छेद होने की आपत्ति आएगी और यथार्थ अनुमान भी मिथ्या हो जाएँगे । शब्दः (पक्ष), अनित्यः (साध्य), कृतकत्वात् (हेतु) घटवत्-इस अनुमान का कृतकत्व - हेतु हेत्वाभास के समस्त दोषों से रहित होने से अनित्यता नामक स्वयं के साध्य की सिद्धि करने वाला होने से सद्हेतु है । फिर भी, यदि बौद्धों की विरुद्ध हेत्वाभास की उपर्युक्त व्याख्या मान्य करते हैं, तो यह सद्हेतु भी विरुद्ध हेत्वाभास ही सिद्ध होता है, जैसे- 'जो-जो कृतक होते हैं, वे सभी शब्द होते हैं- ऐसा अनुमान उचित नहीं है, जैसेघट कृतक है, परन्तु वह शब्दात्मक नहीं है। यहाँ कृतकत्व - हेतु शब्दात्मक-पक्ष के विपरीत शब्दभावात्मक पक्ष की भी सिद्धि करता है । इस प्रकार, प्रथम व्याख्या असत्य सिद्ध हो गई। इसी प्रकार, जो-जो कृतक होता है, वह वह श्रोता अग्राह्य होता नहीं, जैसे- पट । यहाँ पर कृतकत्व - हेतु है, परंतु पक्ष जो शब्द है, उसका जो विशेष - धर्म श्रावणत्व अर्थात् सुनाई देना है, उसके विरोधी अश्रावणत्व की पट के उदाहरण से - 562 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 112 563 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 112 Jain Education International 363 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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