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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा कथंचित्-एकदेश से रहता है, अर्थात् तादात्म्य - रूप से रहे हुए अवयवों में अवयवी की वृत्ति तो हम (जैन) मानते ही हैं 535 पुनः, शून्यवाद का निरसन (खण्डन) करते हुए रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि शून्यवादियों का यह कहना कि 'ज्ञान और ज्ञान का विषय समकाल में भी नहीं हो सकते, उसी प्रकार ये दोनों भिन्न काल में भी संभव नहीं हैं, क्योंकि जिस काल में ज्ञान होगा, उसी काल में ज्ञान का विषय भी होऐसा इसलिए आवश्यक नहीं है कि जिस समय ज्ञान की चेतना होती है, उसी समय उसके विषय की चेतना भी नहीं होती है, क्योंकि दो चेतना (जैनों की दृष्टि से दो उपयोग) एक साथ नहीं होते हैं। इस प्रकार, हम जैनों के अनुसार तो ज्ञान और ज्ञान का विषय- दोनों भिन्न काल में हों, तो भी ज्ञान संभव है। 536 इसी प्रकार, ज्ञान का विषय जो पदार्थ है, वह शून्य है । बौद्धों के इस तर्क का उत्तर देते हुए रत्नप्रभसूरि का कहना है कि शून्यवादियों का यह तर्क युक्ति-युक्त नहीं है। ज्ञान और उसका विषय, अर्थात् ज्ञेय पदार्थ समकाल में भी हो सकते हैं और भिन्न काल में भी हो सकते हैं, क्योंकि ज्ञान अलग वस्तु है और उसका विषय अलग वस्तु है। ज्ञान और ज्ञान का विषय, जब दोनों की स्वतंत्र सत्ताएँ हैं, तो फिर उनके भिन्न-भिन्न काल में होने में और समकाल में होने में कोई बाधा नहीं है, शून्यवादियों की कमी यह है कि वे ज्ञान और ज्ञान के विषय में एकान्तरूप से तादात्म्य मानकर अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं, जबकि जैन- दर्शन ज्ञान और ज्ञान के विषय को अपेक्षा -भेद से भिन्न और अभिन्न- दोनों ही मानते हैं । वस्तुतः, ज्ञान और ज्ञान का विषय अपेक्षा -भेद से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं, अतः, ज्ञान से स्वतंत्र ज्ञेय की सत्ता को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं आती 537 347 पुनः, शून्यवादी का खण्डन करते हुए आचार्य रत्नप्रभसूरि अन्त में कहते हैं कि ज्ञान और ज्ञान के विषय समकाल में होते हैं या भिन्न काल में होते हैं आदि जो विकल्प शून्यवादियों ने प्रस्तुत किए हैं, वे सारे विकल्प हमें स्वीकार्य हैं, क्योंकि जब ज्ञेय पदार्थ हमारे चर्म-चक्षुओं से प्रत्यक्ष होता है, उस समय ज्ञान और ज्ञेय पदार्थ समकाल में होते हैं, किन्तु जब ज्ञेय 535 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 91 536 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 82 537 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 92 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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