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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अभेदरूप कैसे कहा जा सकता है ? तो जैन-दर्शन कहता है कि प्रत्येक पदार्थ में किसी अपेक्षा से भेद भी है और किसी अपेक्षा से अभेद भी है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय से युक्त या सामान्य-विशेषात्मक होता है। पर्याय की अपेक्षा से पर्याय में भेद होता है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से अभेद होता है। पुनः, जब आप 'प्रमाण और प्रमेय नहीं- इस प्रकार, का कथन करते हैं, तो वह कथन स्वपक्ष की अपेक्षा से साधक है और परपक्ष की अपेक्षा से बाधक है। जब एक ही कथन के साधक और बाधक- दोनों होने में कोई विरोध नहीं है, तो फिर प्रत्येक पदार्थ में से द्रव्य की अपेक्षा से अभेद और पर्याय की अपेक्षा से भेद मानने में कोई बाधा नहीं है। आप भी अपेक्षा-भेद को तो स्वीकार करते ही हैं।533
पुनः, ज्ञान के विषय को अस्वीकार करते हुए आप शून्यवादियों ने जो यह आपत्ति उठाई थी कि परमाणु के छ: भाग हो जाने से वह निरंश (अखण्ड) न होकर अंशवाला हो जाएगा, तो आप उन अंशों को शक्तिरूप में स्वीकार करते हैं, या अवयवरूप से स्वीकार करते हैं ? हम तो उन परमाणु के छ: अंशों को भी शक्तिरूप में ही स्वीकार करते हैं। दूसरा, एक परमाणु का अनेक परमाणु के साथ संबंध होने मात्र से वे सावयव हो गएऐसी व्याप्ति भी नहीं बनती है। बिना अवयव के भी उनका शक्ति से अनेक परमाणु के साथ संबंध हो सकता है। यदि शक्ति ही अवयव का दूसरा नाम हो, तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि शक्ति के कारण ही एक परमाणु का अन्य परमाणु के साथ संबंध होने से शक्ति से भिन्न अवयव मानना अनावश्यक है।
निराधार या साधार के संबंध में शून्यवादियों ने जो यह प्रश्न उठाया है, उसके संबंध में हम जैनों का कहना है कि कथंचित्-विरोधी और कथंचित्-अविरोधी- ऐसे अनेक अवयव अविष्वक-भाव से, अर्थात कथंचित्-अभेदरूप से एक साध रहते हैं। इस संबंध में, विरोधी अनेक अवयवों को एक साथ रहने में आपने विरुद्ध धर्म के आश्रय की आपत्ति उठाई है, किन्तु हम (जैन) तो अपेक्षा–भेद से विरुद्ध धर्मों का एक साथ रहना सम्भव मानते हैं, क्योंकि अनेक परस्पर विरोधी अवयव भी अवयवात्मक अवयवी में कथंचित्-भेदरूप से तो रहते ही हैं। इसी प्रकार, हम यह मानते हैं कि 'अवयवी' में प्रत्येक अवयव कथंचित्-सर्वदेश से तथा
555 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 89, 90 534 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 90, 91
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