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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 331 331 अध्याय 13 बौद्धों के शून्यवाद की समीक्षा विषय-स्थापन प्रमाणशास्त्र में प्रमाण के अतिरिक्त प्रमेय, अर्थात् ज्ञान के विषय और प्रमाता, अर्थात् ज्ञाता के स्वरूप का निर्णय करना भी आवश्यक होता है। ज्ञान के विषय को लेकर जैन-दर्शन यह मानता है कि ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न (पदार्थ) है। जिस प्रकार नंगे पैर चलते हुए व्यक्ति को तृण का स्पर्श-ज्ञान होता है, उसी प्रकार ज्ञाता को ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञेय ज्ञाता और ज्ञान से भिन्न है। इस प्रकार, रत्नाकरावतारिका में जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि ज्ञाता और ज्ञान से भिन्न ज्ञेय पदार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जबकि शून्यवादी बौद्धों के अनुसार प्रमाता और प्रमेय- दोनों की यथार्थ (वस्तुगत) सत्ता नहीं है। रत्नाकरावतारिका के सोलहवें सूत्र में प्रमाण के लक्षण में उल्लेखित 'पर' शब्द की व्याख्या करते हुए रत्नप्रभसूरि कहते हैं"ज्ञानादन्योऽर्थ परः", अर्थात् ज्ञान से भिन्न पदार्थ 'पर' कहलाते हैं। 'पर', अर्थात् जिसके निमित्त से ज्ञाता के ज्ञान में परिणमन होता है, अर्थात् जिसमें अर्थक्रिया होती है, वह पदार्थ 'पर' कहलाता है और वह सचेतन या अचेतन- दोनों प्रकार का हो सकता है।10 शून्यवादी बौद्ध-दर्शन का पूर्वपक्ष - जैन-दर्शन में प्रमाण का लक्षण बताते समय कहा गया था कि जो ज्ञान 'अपना' और 'पर' का निश्चय करता है, वह प्रमाण है, अतः, यहाँ 'पर' से तात्पर्य बाह्यार्थ से है। ज्ञातव्य है कि जैन-दर्शन ज्ञान को वास्तविक मानता है और ज्ञान द्वारा प्रतीत होने वाले घट-पट आदि अन्य पदार्थों की भी वास्तविक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है, किन्तु बौद्धों का विज्ञानवादी सम्प्रदाय बाह्यार्थ की स्वतन्त्र सत्ता का निषेध करता है, जबकि शून्यवादी 510 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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