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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा शब्द अनित्य हैं- इस अनुमान में धर्मी शब्द उभयसिद्ध है, क्योंकि वर्तमानकालीन शब्द श्रोत्र ग्राह्य होने से प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हैं तथा भूत एवं भविष्य के शब्द अविद्यमान होने से विकल्पसिद्ध हैं, इसलिए अनित्य-शब्द उभयसिद्ध धर्मी कहलाता है। इस प्रकार, से, स्वार्थानुमान में धर्मी विकल्पसिद्ध, प्रमाणसिद्ध और उभयसिद्ध- इन तीनों में से किसी भी प्रकार का हो सकता है, यह जैन-दर्शन की मान्यता ही न्यायसंगत है।
जैन - स्वार्थानुमान के प्रतिपादन के पश्चात् अब ग्रन्थकार परार्थानुमान का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि पक्ष और हेतु वाले वचन को परार्थानुमान कहते हैं। पक्ष और हेतु से श्रोता को किस प्रकार से बोध होता है, उसे स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि श्रोता तीन प्रकार के होते हैं- 1. अतिव्युत्पन्नमति वाले (अति-बुद्धिमान) 2. व्युत्पन्नमति वाले (बुद्धिमान) और 3. मन्दमति वाले। इन तीनों प्रकार के श्रोताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुमान की प्रक्रिया का प्रयोग किया गया है- 1. अतिव्युत्पन्नमति वाले श्रोता को तो मात्र 'यहाँ धूम दिखाई दे रहा है, वक्ता के मात्र इस हेतु-वचन से ही परार्थानुमान हो जाता है, उसे दृष्टान्त आदि के कथन की आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि वह अति बुद्धिमान् है, उसको यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। वह तो मात्र हेतु (धूम) के कथन से ही अग्नि का अनुमान लगा लेता है। उसके लिए पक्ष और दृष्टान्त के कथन की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु संसार में अतिव्युत्पन्नमति वाले व्यक्ति बहुत कम होते हैं। दूसरे प्रकार के व्युत्पन्नमति वाले श्रोताओं के लिए पक्ष और हेतु- इन दोनों से युक्त कथन ही परार्थानुमान के लिए आवश्यक होता है, किन्तु तीसरे प्रकार के मन्दमति वाले श्रोताओं के लिए पक्ष, हेत, दृष्टान्तादि पाँचों अवयव परार्थानुमान के लिए आवश्यक होते हैं, अर्थात् पक्ष, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन- इन पाँचों अवयवों द्वारा धूमवान् पर्वत पर अग्नि का ज्ञान होता है।
जैन -- यहाँ ग्रन्थकार रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि जिस प्रकार डंडे के मध्य भाग को पकड़ लेने से उसके दोनों सिरों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार अतिव्युत्पन्नमति वाले श्रोता के लिए तो मात्र निश्चितान्यथानुपपत्ति नामक एकमात्र हेतु-लक्षण ही पर्याप्त होता है, किंत मन्दमति वाले व्यक्तियों को साध्य की सिद्धि के लिए पाँचों अवयवों का
489 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 435
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