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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा है। हरिभद्र के प्रायः समकालिक मल्लवादि नाम के एक अन्य जैन आचार्य भी हुए हैं। ज्ञातव्य है कि ये मल्लवादि द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्लवादि से भिन्न हैं। इन्होंने धर्मकीर्ति के न्याय-बिन्दु पर तथा धर्मोत्तर की उसकी टीका पर टिप्पणक लिखे थे। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जैन-न्याय के विकास नामक ग्रन्थ के परिशिष्ट क्रमांक तीन में इनका उल्लेख किया है और इनका काल 700 से 750 माना है, किन्तु मुझे लगता है कि ये मल्लवादि इससे भी परवर्ती होना चाहिए, क्योंकि धर्मोत्तर लगभग नौवीं सदी के पूर्व नहीं हैं। मेरी दृष्टि में धर्मोत्तर का जैन परंपरा में खंडन रत्नाकरावतारिका में भी मिलता है, जो लगभग बारहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है। 6. अकलंक के जैन-दर्शन संबंधी ग्रन्थ और उनमें बौद्धदार्शनिक-मतों की समीक्षा - आचार्य अकलंकदेव दिगम्बर-परंपरा के जैन-दार्शनिक-आचार्यों में एक प्रतिभासंपन्न आचार्य माने जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की उनकी राजवार्तिक नामक टीका सप्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने लघीयस्त्रयी (स्ववृत्ति सहित), न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, सिद्धिविनिश्चय तथा आप्त-मीमांसा की टीकारूप अष्टशती नामक ग्रन्थों की रचना की थी। इनके संबंध में भी यह प्रवाद प्रचलित है कि अकलंक अपने भाई निष्कलंक के साथ बौद्ध-तर्कशास्त्र का अभ्यास करने के लिए बौद्ध-मठ में रहने लगे थे। वहीं इनके जैन होने का पता चलने पर निष्कलंक तो मारे गए थे, किन्तु अकलंक किसी प्रकार बच निकले। कथानकों से यह भी ज्ञात होता है कि इन्होंने अनेक बार बौद्ध-आचार्यों से वाद-विवाद किया था। यह भी सुस्पष्ट है कि अकलंक के पूर्व तक जैन-परंपरा में न्यायावतार ही एकमात्र जैन-न्याय का ग्रन्थ माना जाता है, किन्तु अकलंक ने जैन-न्याय के अनेक ग्रन्थों की रचना कर उसे व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। वर्तमान में जैन-न्याय में प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क (ऊह), अनुमान और आगम या शब्दप्रमाण- ऐसे जो छह प्रमाण माने जाते हैं, वे आचार्य अकलंक की ही देन हैं। श्वेताम्बर--पंरपरा में हरिभद्र तक इन छह प्रमाणों की चर्चा अनुपलब्ध है। सर्वप्रथम सिद्धसेन के न्यायावतार की टीका में ही सिद्धर्षि ने इन छह प्रमाणों की चर्चा की है। सिद्धर्षि का काल नौवीं शताब्दी माना जाता है। यह भी स्पष्ट है कि अकलंक के काल तक बौद्ध-न्याय सुस्थापित हो चुका था। फलतः, अकलंक ने जैन-न्याय को सुव्यवस्थित 23 जैनन्याय का विकास (श्री महाप्रज्ञ). पृ. 154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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