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________________ 314 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सद्भाव होता है, अतः, आपके सपक्ष और पक्ष में कोई अन्तर नहीं रहता है, इसलिए हेतु के सन्दर्भ में सपक्षसत्व- यह लक्षण भी आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। निश्चित-अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का मात्र एक ऐसा लक्षण है, जिसमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षअसत्व- ये तीनों हेतु-लक्षण समाहित हो जाते हैं, अतः, पृथक से इन तीन लक्षणों का मानना आवश्यक नहीं है। वस्तुतः, बौद्धों के अनुसार हेतु के तीन लक्षण और नैयायिकों के अनुसार पाँच लक्षण निश्चितअन्यथानुपपत्तिरूप एक ही लक्षण के विस्तारमात्र हैं, अतः, इन लक्षणों की उपयोगिता नहीं रह जाती है। एकमात्र निश्चित-अन्यथानुपपत्तिरूप लक्षण को स्वीकार करने पर सभी समस्याएँ हल हो जाती हैं। उपसंहार - भारतीय-दर्शन में अनुमान के पाँच अंग माने जाते हैं- 1. साध्य 2. हेतु 3. दृष्टांत 4. उपनय 5. निगमन। अनुमान के इन पाँच अंगों में सबसे प्रमुख अंग हेतु को माना गया है। वस्तुतः, साध्य की सिद्धि के लिए हेतु ही सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है। उदाहरण के रूप में, पर्वत पर अग्नि को सिद्ध करने के लिए यह कहा जाता है कि पर्वत पर धुआँ है। धूम के होने पर ही अग्नि की सिद्धि संभव है, अतः, इस उदाहरण में पर्वत पक्ष है, अग्नि साध्य है और धुआँ हेतु है। प्रायः, सभी भारतीय-दार्शनिक अनुमान के लिए हेतु की उपलब्धि आवश्यक मानते हैं, किन्तु उस हेतु का स्वरूप या लक्षण क्या है, इसको लेकर भारतीय-दर्शन में विवाद देखा जाता है। न्याय-दर्शन हेतु के पाँच लक्षण मानता है। उसके अनुसार, हेतु के पाँच लक्षण निम्न हैं- 1. पक्ष-धर्मत्व 2. सपक्षसत्व 3. विपक्षासत्व 4. असत्-प्रतिपक्षत्व और 5. अबाधित-विषयत्व। नैयायिकों के विरुद्ध बौद्ध-दार्शनिक हेतु को त्रैरूप्य-लक्षण वाला मानते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों के अनुसार, हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षतत्व और विपक्षासत्व- ये तीन लक्षण ही आवश्यक हैं। वैशेषिक-दर्शन और सांख्यदर्शन में भी हेतु के इन्हीं तीन लक्षणों को स्वीकार किया गया है। यद्यपि यह बात विवादास्पद ही है कि त्रैरूप्य हेतु की अवधारणा सर्वप्रथम किसने प्रस्तुत की ? स्वैरवात्स्की के अनुसार, वैशेषिकों की अपेक्षा बौद्धों के त्रैरूप्य लक्षण की कल्पना प्राचीन है, जबकि इसके विरुद्ध पं. सुखलाल संघवी का कहना है कि त्रैरूप्य लक्षण का प्रतिपादन वैशेषिकों ने ही किया था, फिर भी इतना तो निश्चित है कि 468 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 424 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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