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________________ 264 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में, बौद्ध-दार्शनिक प्रज्ञाकर गुप्त का कहना यह है कि काल की अपेक्षा से व्यवधान वाले अतीत और अनागत पदार्थों में किसी संबंध की कल्पना करना उचित नहीं है, क्योंकि इससे अतिव्याप्ति नामक दोष होता है। जैन - इसके उत्तर में रत्नप्रभसूरि पुनः कहते हैं कि व्यवहित तथ्यों में सह-संबंध की कल्पना तभी संभव नहीं होती, जब वे एक दृष्टि से अति दूर हों, किन्तु पूर्वचर और उत्तरचर एक-दूसरे से इतनी दूर नहीं होते हैं, वे परंपरा से तो अव्यवहित होते हैं, क्योंकि एक के तुरन्त बाद दूसरे का आविर्भाव होता है, अतः, पंरपरा से एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं, उनमें कार्य-कारण-भाव संभव है, चाहे वे काल की अपेक्षा से व्यवहित ही क्यों न हों, जैसे- भूतकाल में हुए रावण और आगामी उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थंकर तथा शंख नामक चक्रवर्ती के बीच एक सह-संबंध अवश्य ही है, चाहे वे काल की दृष्टि से व्यवहित ही क्यों न हों।75 बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक प्रज्ञाकर गुप्त का तर्क है कि जो व्यवहित होते हैं, उनमें कार्य-कारण-भाव नहीं होता है और जो अव्यवहित होते हैं, उनमें ही कार्य-कारण-भाव होता है, अतः, व्यवहित में भी कार्य-कारण-भाव की जैनों की मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि साध्य की सिद्धि में हेतु के रूप में अन्वय-व्यतिरेकरूप कार्य-कारण-भाव ही मुख्य होता है। यह अन्वय-व्यतिरेकरूप कार्य-कारण-भाव व्यवहित और अव्यवहित- दोनों में ही संभव है, अतः, अन्वय-व्यतिरेक-संबंध को ही साध्य की सिद्धि में हेतु माना जा सकता है। जैन - प्रज्ञाकर गुप्त के इस कथन के प्रत्युत्तर में जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आप बौद्धों की यह बात सत्य है कि चाहे व्यवहित हो, चाहे अव्यवहित, जहाँ अन्वय-व्यतिरेक-संबंध होता है, वहीं कार्य-कारणभाव-संबंध होता है। यहाँ अन्वय का अर्थ है- जिसके होने पर जो होता है और व्यतिरेक का अर्थ है- जिसके नहीं होने पर नहीं होता है, किन्तु ऐसा अन्वय-व्यतिरेकरूप-संबंध एक-कालवर्ती या समकालवर्ती में ही होता हो, यह आवश्यक नहीं है। काल-भेद होने पर भी ऐसा अन्वयरूप-संबंध संभव है। अवसर्पिणी-काल का रावण और 374 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 475 375 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 475, 476 376 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 476 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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