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________________ 262 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा अतः, जैन-दार्शनिकों का साध्य की सिद्धि के लिए कारण को हेतु के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं है।300 जैन - बौद्ध-दार्शनिक प्रज्ञाकर गुप्त के उपर्युक्त कथन की समीक्षा करते हुए जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में पुनः लिखते हैं कि बौद्धदर्शन भी तो कारण हेतु को स्वीकार करता है और कारण से कार्य का अनुमान भी करता है, अतः, उनके द्वारा कारण-साकल्य को साध्य की सिद्धि में हेतु के रूप में अस्वीकार करना उचित नहीं है। उदाहरण के रूप में घोर अंधकार में आम्रफल के रस का आस्वादन करते हुए उसके रूप का चाक्षुष-प्रत्यक्ष के बिना अनुमान तो होता ही है, क्योंकि कारण से ही कार्य की सिद्धि होती है। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्पूर्ण कारण (कारण-साकल्य) ही कार्य की सिद्धि करता है, इसलिए हम जैन-दार्शनिक कारण के अंतर्गत अप्रतिबद्ध-शक्ति और कारण-साकल्य (कारण-समूह)- इन दोनों तत्त्वों से युक्त कारण को ही हेतु के रूप में स्वीकार करते हैं, अतः, कारण (सम्पूर्ण कारण) को साध्य की सिद्धि में हेतु के रूप में स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। बौद्ध - रत्नप्रभसूरि के इस तर्क के प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक अपने पक्ष का बचाव करते हुए. कहते हैं कि यह तो कारण से कार्य की सिद्धिरूप अनुमान नहीं है, अपितु स्वभाव-हेतुरूप अनुमान ही है, क्योंकि अप्रतिबंधित आर्द्र ईधनयुक्त अग्नि का स्वभाव ही धूम की उत्पत्ति करना है, अतः, बौद्ध-दार्शनिकों का कहना है कि जिसे आप (जैन) कारण-साकल्यरूप हेतु कह रहे हैं, वह तो वस्तुतः कारण-हेतु न होकर स्वभाव-हेतु ही है। इस प्रकार, बौद्ध-दार्शनिक कारण-साकल्य-हेतु का अन्तर्भाव स्वभाव-हेतु में करके किसी न किसी रूप में तो कारण हेतु को स्वीकार कर ही लेते हैं, अतः, रत्नप्रभ की दृष्टि में बौद्धों का यह कहना कि कारण-हेतु कार्य या साध्य की सिद्धि के लिए आवश्यक नहीं है, उचित नहीं है। पुनः, प्रमाणनय-तत्त्वालोक के तृतीय परिच्छेद के 71 वें सूत्र में जैनों द्वारा पूर्वचर उत्तरचर को साध्य की सिद्धि में हेतु के रूप में स्वीकार किया गया है। रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि पूर्वचर-हेतु और उत्तरचर-हेतु 368 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 467 369 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 468 370 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 469 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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