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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा क्योंकि विकल्प को भी उत्पन्न करने की शक्ति तो शब्द में ही रही हुई है | 216 दूसरा, यदि यह माना जाए कि शब्द घट-पट आदि पदार्थों को अपना वाच्य विषय बनाता ही नहीं है, मात्र अन्य का अपोह अर्थात् निषेध करता है, तो शब्द को अर्थ का निषेध करके भी अन्त में किसी एक विकल्प पर तो स्थिर होना ही पड़ता है, अर्थात् अन्य के निषेध में भी एक विधि - पक्ष रहा हुआ है, इसलिए अनुमान के समान ही शब्द को भी प्रमाण क्यों न माना जाए ? जब अनुमान भी अपोह (विकल्प) को दर्शाता हुआ प्रमाण कहला सकता है, तो उसी प्रकार शब्द भी अपोह को दर्शाता हुआ प्रमाण क्यों नहीं कहला सकता ? अर्थात् शब्द को भी प्रमाण मानना चाहिए। जैन बौद्धों से कहते हैं कि प्रत्यक्ष और अनुमान- ये दो प्रमाण तो आप स्वीकार करते ही हैं ( मानते ही है), तो तीसरा आगम - प्रमाण भी आपको स्वीकार करना चाहिए। शब्द घट-पट आदि को अपना वाच्य विषय तो बनाता ही है, किन्तु आपके मतानुसार शब्द विकल्प को बताने वाला भी मान लिया जाए, तो भी आपको अनुमान के समान तीसरा आगम- प्रमाण भी स्वीकार कर लेना चाहिए |217 बौद्ध बौद्ध - दार्शनिक जैनाचार्यों से प्रश्न करते हैं कि अनुमान - प्रमाण को शब्द के समान अपोह को विषय करने वाला मानने पर भी परंपरा से पदार्थ के साथ प्रतिबंध वाला होने से अनुमान को तो प्रमाण ही माना जाता है, किन्तु शब्द को प्रमाण नहीं माना जा सकता है, जैसे कि 'पर्वतो वह्निमान् धूमात्, अर्थात् पर्वत पर धूम होने से पर्वत अग्निवाला हैऐसा बोलते ही श्रोता के मन में साध्य (अग्नि) के प्रति अपोह (विकल्प) ही उत्पन्न होता है, अर्थात् यह भी नहीं, यह भी नहीं - इस प्रकार, अन्य का निषेध करते हुए अन्त में पक्ष में (पर्वत पर ) जाकर देखने पर वह्नि (अग्नि) ही दिखाई देती है, अतः, अनुमान चाहे विकल्प को ही उत्पन्न करता है, किन्तु वह विकल्प पदार्थ के साथ प्रतिबद्ध स्वभाव वाला होने से अनुमान - प्रमाण सिद्ध होता है । 218 - 216 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 615 217 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 615 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 615 218 Jain Education International 185 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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