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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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के सदृश होते हैं और कुछ विसदृश। इन सदृश धर्मों को ही जैनों ने सामान्य माना है। वे यह मानते हैं कि सामान्य अनेकानुगत न होकर विशेष या व्यक्ति में अनुगत है। दूसरे शब्दों में, सामान्य नाम का कोई एक तत्त्व नहीं है, जो कि सभी व्यक्तियों में अनुस्यूत है, अपितु व्यक्तियों के अलग-अलग सदृश गुण-धर्म ही सामान्य हैं, जो कि प्रत्येक व्यक्ति में उपस्थित रहकर उसे एक वर्ग या जाति का सदस्य बनाते हैं। सादृश्यता है और व्यक्ति के धर्म के रूप में वह यथार्थ है। जिस तरह प्रत्यक्ष आदि प्रमाण का विषय जात्यान्वित व्यक्ति या सामान्य-विशेषात्मक वस्तु होती है, उसी तरह शब्द का विषय भी सामान्य-विशेषात्मक यथार्थ वस्तु ही है, विकल्पित वस्तु नहीं। मीमांसकों के अनुसार, यदि शब्द से केवल सामान्य में और बौद्धों के अनुसार विकल्पित सामान्य में ही संकेत ग्रहण माना जाए, तो शब्द को सुनकर विशेष व्यक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। 'गाय' शब्द सुनकर हम 'गाय' विशेष को ही खोजते हैं, किसी सामान्य अर्थात् गोत्व को नहीं खोजते, अतः, शब्द जात्यान्वित यथार्थ वस्तु का संकेतक है, विकल्पित सामान्य का नहीं।"215
बौद्धों द्वारा जैनों पर यह आक्षेप लगाया गया कि आप अनेकान्त के पक्षधर हैं, तो यह अनेकान्त-सिद्धांत भी तो एक एकान्त ही है।
__ इस पर, जैनों ने समाधान किया कि अनेकान्त भी अनेकान्तरूप ही है। वह प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त है तथा नय की अपेक्षा से एकान्त है। इसमें कथंचित् भी विरुद्ध-धर्माध्यास नहीं है, अतः, शब्द सामान्य का भी वाचक है और विशेष का भी, इसलिए शब्द-प्रमाण अनेकान्तिक हैं; किन्तु बौद्ध सामान्य और विशेष- ऐसे उभयात्मकता में विरुद्ध-धर्माध्यास मानते हैं। जैन कहते हैं कि यह अनुभव से सिद्ध है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है; किन्तु उसमें जो विरुद्ध-धर्म हैं, वे भिन्न-भिन्न अपेक्षा से हैं, अतः, उसमें विरुद्ध-धर्माध्यास नहीं है, अर्थात उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। विरुद्ध-धर्माध्यास तो तभी होता, जब वे विरुद्ध-धर्म एक ही अपेक्षा से होते। जगत् की प्रत्येक वस्तु कथंचित्-भेद और कथंचित्-अभेद की अपेक्षा से सामान्य-विशेषात्मक है। इसी प्रकार, शब्द भी सामान्य-विशेषात्मक होते हैं। चूंकि प्रत्येक सामान्य में विशेष तथा प्रत्येक विशेष में सामान्य निहित है, अतः, शब्द सामान्य का भी वाचक है तथा विशेष का भी।
215 देखें - जैन भाषा दर्शन, डॉ. सागरमल जैन, पृष्ठ 53
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