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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 111 बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक इन तकों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि यद्यपि हम पदार्थ को क्षणिक और अनंश (एक स्वभाव वाला) ही मानते हैं, किन्तु सामग्री के भेद से वह भिन्न-भिन्न कार्य को करने वाला बन जाता है। चूंकि पदार्थ में तो रूपक्षण और ज्ञानक्षण- दोनों का बोध कराने का स्वभाव रहा हुआ है, किन्तु वह स्वभाव सामग्री के भेद से भिन्न-भिन्न बोध कराता है, यथा - घट एक ही है, किन्तु वही घट कभी जलधारण करता है, कभी दूध धारण करता है, कभी घृत, तेल, गुड़ आदि धारण करता है। इस प्रकार, भिन्न-भिन्न सामग्री के कारण एक ही घट भिन्न-भिन्न अर्थक्रिया वाला होने से उसका ज्ञान भी भिन्न-भिन्न होता है। जब घट में दूध या घृत होता है, तो यह दूध का घट है, यह घृत का घट है- ऐसा भिन्न-भिन्न ज्ञान होता है। तात्पर्य यह है कि निमित्तकारणभूत-सामग्री से भी भिन्न-भिन्न अर्थक्रिया के कार्य होते हैं, अर्थात निमित्त-भेद से अनेक कार्य होते हैं, अतः, ऐसा भिन्न-भिन्न कथन करने में कौनसी बाधा उत्पन्न होती है ? जैन - बौद्ध-मत के उक्त कथन की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि एक ही स्वभाव वाला पदार्थ सामग्री-भेद से भिन्न-भिन्न स्वभाव को धारण कर लेता है, आप बौद्धों ने ऐसा जो कथन किया है, आपका यह कथन तो आपके कथन से ही खण्डित हो जाता है, क्योंकि एक तरफ तो आप पदार्थ को क्षणिक मानते हैं, दूसरी तरफ, भिन्न-भिन्न सामग्री को धारण करने की बात करते हैं, तो दोनों परस्पर विरोधी बातें कैसे सम्भव होगी ? वस्तुतः तो, किसी एक नित्यस्वरूप (स्वभाव) वाला पदार्थ भिन्न-भिन्न सामग्री के भेद से भिन्न-भिन्न कार्य करने वाला ही कहा जाएगा, यथा- घट एक ही है, जो अक्षणिक (नित्य) स्वभाव वाला है, यह घट कभी जल, तो कभी दूध, तो कभी तेल आदि भिन्न-भिन्न सामग्रियों को धारण करता है। भिन्न-भिन्न सामग्री के अनुसार भिन्न-भिन्न क्रिया करने वाला कहलाता है, अतः, आपको पदार्थ को क्षणिक न मानकर अक्षणिक (सापेक्षिक-नित्य) स्वभाव वाला मानने में क्या आपत्ति है? पदार्थ को नित्य मानने वाले सांख्य–मत को भी आपने सदोष बता दिया। सांख्य भी प्रकृति को एक, नित्य, परिणामी मानते हैं एवं एक ही प्रकृति को सामग्री-भेद से भिन्न कार्य करने वाली मानते हैं, अतः, आपको भी पदार्थ को सापेक्षिक-रूप से अक्षणिक (नित्य) एवं एक स्वभाव वाला 83 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 717 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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