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Lalitanga, seeing the signs of death, the fruits of the tree of sin, was overcome with desire. He saw the decaying garland, the soiled clothes of the celestial beings, the body covered in dirt, the loss of interest in pleasures, the dullness of ornaments, the weeping family, and the trembling Kalpavriksha. His mind, captivated by Manini, withered with mental anguish. At that moment, a divine teacher said, "Even Indra, by the decree of fate, is subject to destruction. O Lalitanga, abandon fear. In the three worlds, there is no one who is both imperishable and immortal." Hearing these words, Lalitanga, repeatedly reflecting on them in his mind and visiting holy places, obtained auspicious...
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________________ वितरहाणुमणियामदाकामावलसणासर्पललियंरपतीणामकावीसमोपरित समाळासाघाशानामदकरिदलितसमकाफलकरसरतासरामनामृगपत्तिमादरण यस्पाहतमानघमनघमासन निर्मलतरविवाषणगणस्टूषितवञ्चरदारुणा तारतम लसासुदेवातवद्धविधर्मविकामुदे कवकासजणमणयेताविरशंसहवारणाझंड य्यचदिहरंडवियमहलललियंगणमरणेणेवछशाळाइहरवयकालेपडिमबिठाट्रिह सूमदामुम्हलिन मढदेवगवछुदामलिया दिहउसकिपिमलकलियन परियहिदी पुसविण्यड शाहरणोदिनियल परिक्षणमायविसुनपतमा विहम्पुरतरुवणुकपतउमा हिसामपुमाणिणिडणिरिरका जासोमाणसडकसुरकर तानियमगुरुको वितहितासशपियश पिठसविणासश्सोललियंग्यमस्वहिलयजरुतिऊयोकोविपछिअजरामरु सुम्बरहि जसडेंसिल जसुसवालानदिड तंजियापायपामुसलविं नेपानिमुहिरवलयमा इल्लसाएगरणहाणिहे माडिहासिवष्यमिगजोणिहि संसारशिवमूलुम्मूल माहोहोतिरेवर, यसीलापुरा जायणुर्विष्णहाररंगण्डावसानविचित मेलेचिसासयसिद्धिसिरि दुख हाणउहोतिसुरवाशी ताललियेगेंतश्रायमेवि वारवारणियहियवएमवितिळझाएविसुद सन्धि २२ सज्जनों के मन को सन्ताप देनेवाले, रतिसुख का निवारण करनेवाले दुर्दर्शनीय, पापरूपी वृक्ष के फलों, मरणरूपी चिह्नों को लालतांग ने देखे। कोई नहीं है। जैसा कि स्वयंबुद्ध ने कहा था, यहाँ भी जिसका सेवाफल दिखाई देता है, उन जिनचरणों को सद्भाव से याद करो जिससे संसार में किये गये पाप से मुक्त हो सको। हे सुभट, खोटी लेश्या से मनुष्यत्व की हानि करनेवाली पशु योनि में मत पड़ो। संसाररूपी वृक्ष की जड़ों को नष्ट करनेवाले व्रत और शील तुमसे दूर न हों। घत्ता-भाव की विचित्रताएँ रंगनट की तरह उत्पन्न होती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं, शाश्वत मोक्षलक्ष्मी को छोड़कर सुरति चेतनाएँ (कृतिभावनाएँ) दुर्लभ नहीं होती (अर्थात् उन्हें पाना आसान है)॥१॥ दुर्धर क्षयकाल से आहत, मुरझायी हुई माला उसने देखी। कोमल देवांग वस्त्र कुछ मैले हो गये, उसका शरीर मल से काला हो गया। उसका भोगों में वैराग्य बढ़ गया। आभरणों का समूह निस्तेज हो गया। शोक से खिन्न रोता हुआ परिजन और काँपते हुए कल्पवृक्ष उसे दिखाई दिये। मोहित मन वह जैसे ही मानिनी को देखता है वह मानसिक दुःख से सूखने लगता है। उस अवसर पर कोई देवगुरु उससे कहता है-"नियति के नियोग से इन्द्र भी नाश को प्राप्त होता है। हे ललितांग देव, भयज्वर छोड़ दो। त्रिभुवन में अजर और अमर ललितांग उन शब्दों को सुनकर और बार-बार अपने मन में मानकर तथा तीर्थों में जाकर शुभ Jain Education International For Private & Personal use only www.jananeorg
SR No.002738
Book TitleAdi Purana
Original Sutra AuthorPushpadant
Author
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year2004
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size147 MB
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