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राणिपहिल्लनधामका गंसरणायणि महियरिदेवाविमलकवादरािध्ता मासंगजरंगहि गवरहिरहश्यचमरहिंपरियरिउ वियालियकाकलयलुमुहलु सरहपाहिलणासरिताड्डा शपतासमवसरण असहदरणाखंयकालधारणा मयूराणपविलितमन्नाहलमालाललिया तोरण ना हरिणादिवासणासाणगानिमणिमससिसमसयामवच पडलामापियासविद्रमा एचसहिचमरचिनिजमाणु जियायाइदिहसरदेसरण एण्यासहपवपकयसरण गंमत्तम करवारिखाक गंवाएपरससिहिलाद सिंहसलावियनमाजगह माणसुजपिनमारक कंपावियदिबवाहिवः पारथुपाचकादिदेणजमवणसवणतिमिरहरदीव जयसर इसवाहियरबजावजयसासिटायापासम अयणगणिजपाणिरुवममासकयाकमका मलाताईउहतिद्वपसनुगयाजाणयणाश्ताशहासिसाहसोकंजेणगाश्सरदितिसम्म कपञ्जयसंगति तेकरजेडहपसणुकरतिवेपणाणवतजपश्मुनि तेसकश्यत्रणजेपणा तितंकवदेवजवञ्चरच साजाहजापडहणालडातमापूजनदयणामली तधपजवहया परवीण तंसासजणचईपणदिसि तेजाजेहिं माइनस तमुनिहसम्मुहर्नयाल्सि
इसलिए पहले धर्मकार्य करना चाहिए। तब उसने गम्भीर नाद से शत्रुओं का संहार करनेवाली आनन्दभेरी सम्भावित मोक्ष को, मानो हंस ने सुख देनेवाले मानस सरोवर को। दिशाओं के लोकपालों को कैंपानेवाले बजवा दी।
चक्राधिप भरत ने स्तुति प्रारम्भ की, "विश्वरूपी भवन के अन्धकार के दीप, आपकी जय हो, आगम से घत्ता-गज, तुरंगों, नरवरों, रथध्वज और चमरों से घिरा हुआ, और वैतालिकों के द्वारा किये गये भव्य जीवों को सम्बोधित करनेवाले आपकी जय हो। एकानेक भेदों को बतानेवाले आपकी जय हो। हे कलकल से मुखर राजा भरत चला ॥६॥
दिगम्बर, निरंजन और अनुपमेय आपकी जय हो । वे चरणकमल कृतार्थ हो गये जो तुम्हारे प्रशस्त तीर्थ के
लिए गये। वे नेत्र कृतार्थ हैं जिन्होंने तुम्हें देखा, वह कण्ठ सफल हो गया जिसने स्वरों से तुम्हारा गान किया। वह क्षयकाल का निवारण करनेवाले और अशुभ का हरण करनेवाले तथा जिसमें मगर के मुख की वे कान धन्य हैं जो तुम्हें सुनते हैं, वे हाथ कृतार्थ हैं जो तुम्हारी सेवा करते हैं । वे ज्ञानी हैं जो आपका चिन्तन आकृति से निकले हुए मोतियों की माला से चंचल तोरण हैं, ऐसे समवशरण में पहुँचा। सिंहासन पर आसीन करते हैं, वे सज्जन और सुकवि हैं जो तुम्हारी स्तुति करते हैं। हे देव, वह काव्य है जो तुममें अनुरक्त है। शरीर, चन्द्रमा की तिगुनी सफेदी के समान आतपत्र (छत्र) वाले इन्द्र के द्वारा सेवित, जिनके ऊपर चौंसठ जीभ वह है जिसने तुम्हारा नाम लिया है। वह मन है जो तुम्हारे चरण-कमलों में लीन है। वह धन है जो चमर ढोरे जा रहे हैं, ऐसे जिननाथ को भरतेश्वर ने इस प्रकार देखा मानो नवकमलवाले सरोवर ने सूर्य को तुम्हारी पूजा में समाप्त होता है, वह सिर है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है। योगी वे हैं जिनके द्वारा तुम्हारा
देखा हो। मानो मतवाले मयूर ने मेघ को, मानो रसायन निर्माता ने रस के सिद्धिलाभ को, मानो सिद्ध ने ध्यान किया गया। वह मुख है जो तुम्हारे सम्मुख स्थित है। Jain Education International
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