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The 45th chapter of the book describes the story of a king who renounced his worldly possessions and became a Jain monk. The king was troubled by the six enemies of the soul: lust, anger, greed, attachment, pride, and jealousy. He realized that the world is impermanent and that there is no true happiness to be found in it. He also understood that the self is distinct from the body and that the body is merely a temporary vessel for the soul. The king was inspired by the teachings of the Jain Tirthankaras and decided to dedicate his life to spiritual liberation. He renounced his kingdom and all of his worldly possessions and took the vows of a Jain monk. The king's journey to liberation was not easy. He faced many challenges and temptations, but he remained steadfast in his commitment to the path. He practiced the Jain principles of non-violence, truthfulness, non-stealing, celibacy, and non-attachment. After many years of rigorous spiritual practice, the king attained liberation. He became a Jina, a conqueror of the cycle of birth and death. The chapter concludes with a description of the Jina's qualities and the benefits of following the Jain path.
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________________ पञ्चपञ्चाशत्तमं पर्व कामशोकभयोन्मादस्वमचौर्याच पद्रताः । असत्सदिति पश्यन्ति पुरतो वा व्यवस्थितम् ॥ ४०॥ न स्थास्नु न शुभं किञ्चिन्न सुख मे न किञ्चन । ममाहमेव मत्तोऽन्यदन्यदेवाखिलं जगत् ॥ ४ ॥ अहमन्यदिति द्वाभ्यां शब्दाभ्यां सत्यमपितम् । तथापि कोऽप्ययं मोहादाग्रहो विग्रहादिषु ॥ ४२ ॥ अहं मम शुभं नित्यं सुखमित्यतथात्मसु । अस्मादेव विपर्यासाद् भान्तोऽहं भववारिधौ ॥ १३ ॥ जन्मदुःखजरामृत्युमहामकरभीकरे । इति साम्राज्यलक्ष्मी स तितिक्षुरभवत्तदा ॥ ४४ ॥ क्षिप्त्वा लौकान्तिकावासपूजो राज्यभर सुते । सुमतौ प्राप्तकल्याणः सुरेन्द्रैः परिवारितः ॥ ४५ ॥ आरुह्य शिविका सूर्यप्रभाख्यां पुष्पके बने। मार्गशीर्षे सिते पक्षे प्रतिपद्यपराहके ॥४६॥ दीक्षा पोवासेन ससहस्त्रनृपोऽगृहीत् । मनःपर्ययसंज्ञानो द्वितीयेऽह्नि प्रविष्टवान् ॥ ४७ ॥ चर्या शैलपुरे पुष्पमित्रश्वामीकरच्छविः । तत्र तं भोजयित्वाऽऽप पञ्चाश्चर्याणि पार्थिवः ॥ १८ ॥ एवं तपस्यतो याताः छामस्थ्येन चतुःसमाः । मूलरूं कार्तिके शुद्धद्वितीयायां दिनक्षये ॥ ११ ॥ दिनद्वयोपवासः सन्नधस्तानागभूरुहः । दीक्षावने विधूताघः प्राप्तानन्तचतुष्टयः ॥ ५० ॥ अतुर्विधामराधीशविहितातयंवैभवः । सुनिरूपितविश्वार्थदिव्यध्वनिविराजितः ॥ ५१ ॥ विदर्भनाममुख्याष्टाशीतिसप्तद्धिंसंयुतः। शून्यद्वयेन्द्रियैकोक्तश्रतकेवलिनायकः ॥ ५२ ॥ खद्वयेन्द्रियपन्वेन्द्रियैकशिक्षकरक्षकः। शून्यद्वयाब्धिकर्मोक्तत्रिज्ञानधरसेवितः ॥ ५३॥ शुन्यत्रयमुनिप्रोतकेवलज्ञानलोचनः । खन्नयत्र्येकनिर्णीतविक्रियद्धिविवेष्टितः ॥ ५४ ॥ शून्यद्वयेन्द्रियर्युक्तमनःपर्ययबोधनः । शून्यद्वयर्तुषट्प्रोक्तवादिवन्यामिमङ्गलः ॥ ५५ ॥ म्बना रूप है। कर्मरूपी इन्द्रजालिया ही इसे उल्टा कर दिखलाया है ।। ३८-३६॥ काम, शोक, भय, उन्माद, स्वप्न और चोरी आदिसे उपद्रुत हुए प्राणी सामने रक्खे हुए असत् पदार्थको सत् समझने लगते है ॥४०।। इस संसारमें न तो कोई वस्तु स्थिर है, न शुभ है, न कुछ सुख देनेवाली है और न कोई पदार्थ मेरा है, मेरा तो मेरा आत्मा ही है, यह सारा संसार मुझसे जुदा है और मैं इससे जुदा हूँ, इन दो शब्दोंके द्वारा ही जो कुछ कहा जाता है वही सत्य है, फिर भी आश्चर्य है कि मोहोदयसे शरीरादि पदार्थों में इस जीवकी आत्मीय बुद्धि हो रही है ।।४१-४२ ॥ शरीरादिक ही में हूँ, मेरा सब सुख शुभ है, नित्य है इस प्रकार अन्य पदार्थोंमें जो मेरी पिपर्यय-बुद्धि हो रही है उसीसे मैं अनेक दुःख देनेवाले जरा, मरण और मृत्यु रूपी बड़े-बड़े मकरोंसे भयंकर इस संसाररूपी समुद्रमें भ्रमण कर रहा हूँ। ऐसा विचार कर वे राज्य लक्ष्मीको छोड़नेकी इच्छा करने लगे ॥४३-४४॥ लौकान्तिक देवोंने उनकी पूजा की। उन्होंने सुमति नामक पुत्रके लिए राज्यका भार सौंप दिया, इन्द्रोंने दीक्षा-कल्याणक कर उन्हें घेर लिया ॥४५॥ वे उसी समय सूर्यप्रभा नामकी पालकी पर सवार होकर पुष्पकवनमें गये और मार्गशीर्षके शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन सायंकालके समय बेलाका नियम लेकर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय हो गया। वे दूसरे दिन आहारके लिए शैलपुर नामक नगरमें प्रविष्ट हुए। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले पुष्पमित्र राजाने उन्हें भोजन कराकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥४६-४८ । इस प्रकार छद्मस्थ अवस्थामें तपस्या करते हुए उनके चार वर्ष बीत गये। तदनन्तर कार्तिक शुक्ल द्वितीयाके दिन सायंकालके समय मूल-नक्षत्रमें दो दिनका उपवास लेकर नागवृक्षके नीचे स्थित हुए और उसी दीक्षावनमें धातिया कर्मरूपी पापकर्मोको नष्ट कर अनन्तचतुष्टयको प्राप्त हो गये ॥४-५०॥ चतुर्णिकाय देवोंके इन्द्रोंने उनके अचिन्त्य वैभवकी रचना की-समवसरण बनाया और वे समस्त पदार्थों का निरूपण करनेवाली दिव्यध्वनिसे सुशोभित हुए ॥५१॥ वे सात ऋद्धियोंको धारण करनेवाले विदर्भ आदि अट्ठासी गणधरोंसे सहित थे, पन्द्रह सौ श्रुतकेवलियोंके स्वामी थे; एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षकोंके रक्षक थे, आठ हजार चार सौ अवधि-ज्ञानियोंसे सेवित थे, सात हजार केवलज्ञानियों और तेरह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारकोंसे वेष्टित थे, सात हजार पाँच सौ मनःपर्ययज्ञानियों और छह हजार छह सौ वादियोंके द्वारा उनके मङ्गलमय चरणोंकी पूजा होती थी, इस प्रकार वे सब मिलाकर दो लाख मुनियोंके स्वामी थे, घोषाको आदि लेकर तीन लाख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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