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Chaturhsaptatimatam Parva In the city of Pushkalāvatī, the king was Pundarīkiṇī. His famous wife was Manoramā. Their son was the renowned Priyamitra, who was adorned with the ornaments of good conduct. He had subdued all his enemies merely by his name. After enjoying all kinds of pleasures, he became detached from worldly affairs, renounced his kingdom, and took diksha along with a thousand kings. He attained the state of a Tīrthaṅkara, and after the end of his lifespan, he went to the Pushpottara Vimāna and became the supreme deva. His lifespan was twenty-two Sāgaras, and he possessed the pure Śukla-leśyā. He would breathe once in twenty-two years, and would consume the nectar of the mind once in twenty-two thousand years. His Avadhi-jñāna could perceive up to the sixth earth.
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________________ चतुःसप्ततितमं पर्व विषये पुष्कलावत्यां धरेशः पुण्डरीकिणी । पतिः सुमित्रविख्यातिः सुत्रतास्य ? मनोरमा ॥ २३६ ॥ प्रियमित्रस्तयोरासीधनयो नयभूषणः । नान्नैव नमिताशेषविद्विषश्चक्रवर्तिताम् ॥ २३७ ॥ सम्प्राप्य भुक्तभोगाङ्गो भङ्गुरान्सर्वसङ्गमान् । क्षेमङ्करजिनाधीशवक्त्राम्भोजविनिर्गतात् ॥ २३८ ॥ तस्वगर्भगभीरार्थवाक्यान्मत्वा विरक्तवान् । सर्वमित्राख्यसूनौ स्वं राज्यभारं निधाय सः ॥ २३९ ॥ ३ भब्य भूपसहस्रेण सह संयममाददे । प्रतिष्ठानं यमास्तस्मिन्नवा * पंस्तेऽष्टमातृभिः ॥ २४० ॥ प्रान्ते प्राप्य सहस्रारमभूत्सूर्यप्रभोऽमरः " । सुखाष्टादशवार्थ्यायुर्वृद्धद्धिर्भुक्तभोगकः ॥ २४१ ॥ मेघाद्विद्विशेषो वा ततः स्वर्गाद्विनिर्गतः । छत्राकारपुरेऽत्रैव नन्दिवर्धनभूभुजः ॥ २४२ ॥ वीरवत्याश्च नन्दाख्यस्तनूजः सुजनोऽजनि । निष्ठाप्येष्टमनुष्ठानं स श्रेष्ठं प्रोष्ठिलं गुरुम् ॥ २४३ ॥ सम्प्राप्य धर्ममाकर्ण्य ६ निर्णीतासागमार्थकः । संयमं सम्प्रपद्याशु स्वीकृतैकादशाङ्गकः ॥ २४४ ॥ भावयित्वा भवध्वंसि तीर्थकृत्नामकारणम् । बध्वा तीर्थकरं नाम सहो चै गोत्रकर्मणा ॥ २४५ ॥ जीवितान्ते समासाद्य सर्वमाराधनाविधिम् । पुष्पोत्तरविमानेऽभूदच्युतेन्द्रः सुरोत्तमः ॥ २४६ ॥ द्वाविंशत्यब्धिमेयायुररत्नित्रय देहकः । शुकलेश्याद्वयोपेतो द्वाविंशत्या स निःश्वसन् ॥ २४७ ॥ पक्षैस्तावत्सहस्त्राब्दैराहरन् मनसामृतम् । सदा मनःप्रवीचारो भोगसारेण तृप्तवान् ॥ २४८ ॥ 'आषष्ठपृथिवीभागाद्वयाप्सावधिविलोचनः । स्वावधिक्षेत्र संमेयबलाभाविक्रियावधिः ॥ २४९ ॥ प्राप्त हुआ और वहाँ से चलकर घातकीखण्डद्वीपकी पूर्व दिशा सम्बन्धी विदेह क्षेत्रके पूर्वभाग में स्थित पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें राजा सुमित्र और उनकी मनोरमा नामकी रानीके प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ । वह पुत्र नीतिरूपी आभूषणोंसे विभूषित था, उसने अपने नामसे ही समस्त शत्रुओंको नम्रीभूत कर दिया था, तथा चक्रवर्तीका पद प्राप्तकर समस्त प्रकारके भोगोंका उपभोग किया था । अन्त में वह क्षेमङ्कर नामक जिनेन्द्र भगवान्‌के मुखारबिन्द से प्रकट हुए, तत्त्वों से भरे हुए और गम्भीर अर्थ को सूचित करने वाले वाक्योंसे सब पदार्थोंके समागमको भर मानकर विरक्त हो गया तथा सर्वमित्र नामक अपने पुत्रके लिए राज्यका भार देकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गया । पाँच समितियों और तीन गुप्तियों रूप आठ प्रवचनमातृकाओं के साथ-साथ अहिंसा महाव्रत आदि पाँच महाव्रत उन् मुनिराजमें पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए थे ।। २३५ - २४० ।। आयुका अन्त होनेपर वे सहस्रार स्वर्ग में जाकर सूर्यप्रभ नामके देव हुए । वहाँ उनकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी, अनेक ऋद्धियाँ बढ़ रही थीं और वे सब प्रकार के भोगोंका उपभोग कर चुके थे ।। २४१ ।। जिस प्रकार मेघसे एक विशेष प्रकारकी बिजली निकल पड़ती है उसी प्रकार वह देव उस स्वर्गसे च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीपके छत्रपुर नगरके राजा नन्दिवर्धन तथा उनकी वीरवती नामकी रानीसे नन्दनामका सज्जन पुत्र हुआ । इष्ट अनुष्ठानको पूरा कर अर्थात् अभिलषित राज्यका उपभोग कर वह प्रोष्ठिल नामके श्रेष्ठ गुरुके पास पहुँचा । वहाँ उसने धर्मका स्वरूप सुनकर आप्त, आगम और पदार्थका निर्णय किया; संयम धारण कर लिया और शीघ्र ही ग्यारह अङ्गोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया ।। २४२-२४४ ।। उसने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होने में कारण भूत और संसारको नष्ट करने वाली दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चितवनकर उबगोत्रके साथ-साथ तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया || २४५ ।। आयुके अन्त समय सब प्रकारकी आराधनाओं को प्राप्तकर वह अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें श्रेष्ठ इन्द्र हुआ ॥२४६॥ वहाँ उसकी बाईस सागर प्रमाण आयु थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्य और भाव दोनों ही शुक्ल लेश्याएं थीं, बाईस पक्षमें एक बार श्वास लेता था, बाईस हजार वर्ष में एक बार मानसिक अमृतका आहार लेता था, सदा मानसिक प्रवीचार करता था और श्रेष्ठ भोगोंसे सदा तृप्त रहता था ।।२४७-२४८|| उसका अवधिज्ञान रूपी दिव्य नेत्र छठवीं पृथिवी तककी बात जानता था और उसके १ सुवताख्या ल० । २ विनिर्गमात् ल० । ३ राजकेन सहस्रेण इत्यपि क्वचित् । ४ नवापुस्ते ख० । नवापन् नष्ट ख० । ५ सूर्यप्रभामरः ल० । ६ निर्णीतार्थागमार्थकः ल० । ७ समाराध्य क०, ख० म० । ८ श्राषष्ठ पृथि बीप्रातविद्यावधि ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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