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18 Mahapuraana, Uttara Puraana He is always served by the three worlds, the revealer of the knowledge of the auspicious lotus. He has destroyed both kinds of darkness, the illuminator of the world and the non-world. || 53 || He, having made the moon below, wandered for the sake of the rain of Dharma. His actions, like the clouds, are beneficial to the happiness of the world. || 54 || Having reached Mount Sammed, he abandoned the practice of wandering and, along with a thousand munis, he took on the form of a statue. || 55 || On the sixth day of the bright fortnight of the month of Chaitra, when the sun was about to set, he attained the Lakshmi of liberation in his own birth star. || 56 || The gods, having worshipped him, the master of the fifth knowledge, who has attained the fifth path, in the fifth auspicious event, went to their respective places. || 57 || ShaardoolavikreeDita Having transcended the eight best qualities of restraint in order, he, the destroyer of karma, the expert in the eight worst means, is skilled in the eight worst means. || 58 || Maalini He, who has attained the vast and pure Lakshmi, who has seen the Lakshmi of love, who was the pure king Vimala Vaahana on this earth, who has defeated the sun with the brilliance of his body, who was the king Ahamindra, who has embraced the Lakshmi of auspiciousness, may Sambhava, the lord, bless you all. || 59 || Thus ends the 49th chapter of the Sambhava Tirthankara Puraana, in the collection of the Trishattilakshana Mahapuraana, composed by Bhagavadguna Bhadraacharya, known as Aarsha. 1. Lokaloko prakaasayan lo. 2. Chaitra maasi go. 3. Sanchitaaye lo. Sanchitapunyaah. 4. Sambhava vidhu lo.
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________________ १८ महापुराणे उत्तरपुराणम् सदा त्रिभुवनासेव्यो भव्यपद्मावबोधनः । निष्यध्वस्तोभयध्वान्तो 'लोकालोके प्रकाशकः ॥ ५३ ॥ विधुं सोऽधो विधायैव विहरद् धर्मवृष्टये । पर्जन्यवत्सतां चेष्टा विश्वलोकसुखप्रदा ॥ ५४ ॥ सम्मेदं पर्वतं प्राप्य त्यक्तमासविहारकः । सहस्रमुनिभिः सार्द्धं प्रतिमायोगमागतः ॥ ५५ ॥ २ चैत्रे मासि सिते पक्षे षष्ठयामर्केऽस्तसम्मुखे । स्वकीयजन्मनक्षत्रे मोक्षलक्ष्मीं समागमत् ॥ ५६ ॥ पञ्चमावगमेशं तं पञ्चमीं गतिमास्थितम् । पञ्चमेऽभ्यर्च्य कल्याणे सञ्चिताया 3 ययुः सुराः ॥ ५७ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् अष्टौ शिष्टतमानि संयमगुणस्थानान्यतीत्य क्रमादष्टौ दुष्टतमानुपायनिपुणो निर्मथ्य कर्मद्विषः । Jain Education International अष्टाविष्टतमान् गुणानविकलान् कृत्वा तनुं शाश्वती मष्टम्यामवनौ स्म सम्भवविभुः शुम्भत्सुखः शोभते ॥ ५८ ॥ मालिनी विपुलविमललक्ष्मीर्वीक्षितानङ्गलक्ष्मीरिह भुवि विमलादिर्वाहनो देहदीप्त्या । हतरविरहमिन्द्रो रुद्रकल्याणलक्ष्मीप्रकटितपरिरम्भः सम्भवः शं क्रियाद्वः ॥ ५९ ॥ इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङ्ग हे सम्भवतीर्थकर पुराणं परिसमाप्तमे कोनपञ्चाशत्तमं पर्व ॥ ४९ ॥ सदा सद्वृत्त - सदाचारके धारक रहते थे, चन्द्रमा केवल पूर्णिमाको हो पूर्ण रहता है अन्य तिथियोंमें अपूर्ण रहता है परन्तु भगवान् सदा ज्ञानादि गुणोंसे पूर्ण रहते थे, चन्द्रमाके निकट ध्रुव ताराका उदय नहीं रहता परन्तु भगवान् सदा अभ्यर्ण ध्रुवोदय थे— उनका अभ्युदय ध्रुव अर्थात् स्थायी था, चन्द्रमा केवल मध्यम लोकके द्वारा सेवनीय है परन्तु भगवान् तीनों लोकोंके द्वारा सेवनीय थे, चन्द्रमा कमलोंको मुकुलित कर देता है परन्तु भगवान् सदा भव्य जीवरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करते थे अथवा भव्यजीवोंकी पद्मा अर्थात् लक्ष्मीको बढ़ाते थे, चन्द्रमा केवल बाह्य अन्धकारको ही नष्ट करता है परन्तु भगवान्ने बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके अन्धकारको नष्ट कर दिया था, तथा चन्द्रमा केवल लोकको प्रकाशित करता है परन्तु भगवान्ने लोक अलोक दोनोंको प्रकाशित कर दिया था। इस प्रकार चन्द्रमाको तिरस्कृत कर धर्मकी वर्षा करनेके लिए भगवान ने आर्य देशों में विहार किया था सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषोंकी चेष्टा मेघके समान सब लोगोंको सुख देनेवाली होती है ।। ५१-५४ ।। अन्तमें जब आयुका एक माह अवशिष्ट रह गया तब उन्होंने सम्मेदाचल प्राप्त कर विहार बन्द कर दिया और एक हजार राजाओंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया ।। ५५ ॥ तथा चैत्र मासके शुक्ल पक्षकी षष्ठीके दिन जब कि सूर्य अस्त होना चाहता था तव अपने जन्मनक्षत्रमें मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया ।। ५६ ।। जो पश्चम ज्ञान -- केवलज्ञानके स्वामी हैं और पचमगति--मोक्षावस्थाको प्राप्त हुए हैं ऐसे भगवान् संभवनाथकी पचमकल्याणक — निर्वाणकल्याणकमें पूजा कर पुण्यका संचय करने वाले देव यथास्थान चले गये ॥ ५७ ॥ उपायोंके जाननेमें निपुण भगवान् संभवनाथने छठवेंसे लेकर चौदहवें तक संयम के उत्तम गुणस्थानोंका उल्लंघन किया, अत्यन्त दुष्ट आठ कर्मरूपी शत्रुओं का विनाश किया, अत्यन्त इष्ट सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंको अपना अविनश्वर शरीर बनाया और अष्टम भूमिमें अनन्त सुखसे युक्त हो सुशोभित होने लगे ॥ ५८ ॥ जिन्होंने अनन्तचतुष्टयरूप विशाल तथा निर्मल लक्ष्मी प्राप्त की है, जिन्होंने शरीररहित मोक्षलक्ष्मीका साक्षात्कार किया है, जिन्होंने अपने शरीरकी प्रभासे सूर्यको पराजित कर दिया है, जो पहले इस पृथिवी पर विमलवाहन राजा हुए थे, फिर अहमिन्द्र हुए और तदनन्तर जिन्होंने पचकल्याणक लक्ष्मीका आलिंगन प्राप्त किया ऐसे श्री संभवनाथ स्वामी तुम सबका कल्याण करें ॥ ५६ ॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, भगवद्गुणभद्राचार्य के द्वारा प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणके संग्रहमें संभवनाथ तीर्थंकरका पुराण वर्णन करनेवाला उनचासवां पर्व पूर्ण हुआ । १ लोकालोको प्रकाशयन् ल० । २ चैत्रमासि ग० । ३ संचिताये ल० । सञ्चितपुण्याः । ४ संभवविधुः ल० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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